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क्षुल्लकत्वग्रहण विधि की पारम्परिक अवधारणा... 13
जीवनपर्यन्त के लिए सामायिकव्रत की प्रतिज्ञा दिलवायी जाती है। पंचमहाव्रतों का आरोपण तो उपस्थापन काल में किया जाता है। नियमतः जब प्रव्रज्याधारी सामायिकव्रत का पालन करते हुए मुनिचर्या में पूर्ण अभ्यस्त हो जाए तब उसकी योग्यता का परीक्षण कर उसी की उपस्थापना करते हैं। सम्भवतः पूर्वकाल में प्रव्रज्याधारी (यावज्जीवन सामायिक व्रतधारी) को ही क्षुल्लक कहा जाता होगा। सामान्यतया उपस्थापना से पूर्व दीक्षित मुनि संयमपर्याय की अपेक्षा लघु कहलाता है, अतः इस युक्ति से प्रव्रज्याधारी को क्षुल्लक कहा जा सकता है। परन्तु आचार्य वर्धमानसूरि के अनुसार क्षुल्लक रात्रिभोजन के त्याग सहित पंचमहाव्रतों का दो करण एवं तीन योगों से तीन वर्ष पर्यन्त अनुपालन करता है। 2 इन महाव्रतों के परिपालन में वह स्वयं के द्वारा हिंसादि करने या करवाने का त्याग करता है, किन्तु उनके अनुमोदन का त्याग नहीं करता है। अतः मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा आदि की प्रेरणा दे सकता है।
दिगम्बर-परंम्परा में ग्यारहवीं श्रमणभूत प्रतिमा धारण करने वाले श्रावक को क्षुल्लक कहा गया है। आचार्य वसुनन्दि ने 11वीं प्रतिमा के दो भेद किये हैं - क्षुल्लक और ऐलक । जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश के अनुसार विक्रम की 14वीं15वीं शती तक उक्त नाम प्रथमोत्कृष्ट श्रावक और द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक के रूप में प्रचलित थे। तदनन्तर पं. राजमल्लकृत (16वीं शती) लाटीसंहिता में सर्वप्रथम क्षुल्लक और ऐलक शब्द का प्रयोग किया गया मालूम होता है।
आचार्य जिनसेन ने क्षुल्लक के दीक्षार्ह एवं अदीक्षार्ह - ऐसे दो विभाग किये हैं। इसका स्पष्टीकरण यथास्थान करेंगे।
क्षुल्लकत्व ग्रहण एवं उसे प्रदान करने का अधिकार किसे ?
क्षुल्लक दीक्षा कौन धारण कर सकता है ? इस सम्बन्ध में आचार्य वर्धमानसूरि उसकी आवश्यक योग्यताओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिसने तीन वर्ष तक त्रिकरण की शुद्धिपूर्वक ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया हो, वैराग्य भाव से परिपूर्ण हो, शील का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाला हो एवं यतिदीक्षा ग्रहण करने को उत्सुक हो, वह साधक क्षुल्लक दीक्षा के लिए योग्य है | 4
परम्परागत सामाचारी के अनुसार जो गुरु प्रव्रज्या दान के योग्य माने गये हैं उन्हीं के द्वारा यह व्रतारोपण संस्कार सम्पन्न किया जाता है। दीक्षा देने योग्य