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________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 247 आस-पास और आगे-पीछे यानि चारों दिशाओं में आये हुए या रहे हुए अन्य मकानादि एवं मार्गादि की जानकारी भी लिखी जाती है, क्योंकि किसी कारणवश खरीदे हुए या बेचे हुए मकान के लिए कोई इन्कार न कर दें। अत: आस-पास की पूरी जानकारी लिखी जाती है उसी प्रकार शिष्य की नामस्थापना करते समय कुल, गण, आचार्य आदि का नाम दस्तावेज के रूप में चतुर्विध संघ के समक्ष तीन बार सुनाया जाता है, क्योंकि मोहवश किसी शिष्य के लिए गुरु या गच्छ परिवर्तन का प्रसंग उपस्थित न हो जाये, अत: कुल, गण एवं आचार्यादि के नाम का दिग्बन्धन किया जाता है। दिग्बन्धन का तीसरा कारण यह कहा जा सकता है कि इसके निर्वहन से शिष्य गुरु का आज्ञापालक बनता है तथा गुरु और समुदाय के मुनि भी उस शिष्य की प्रकृति को समझकर उसको चारित्र में पुष्ट करते हैं इससे पारस्परिक उपकारक भाव की वृद्धि होती है। निःसन्देह दिग्बन्धन एक शास्त्रोक्त एवं सोद्देश्य प्रक्रिया है। गजदन्त मुद्रा में महाव्रतों का स्वीकार क्यों ? पूर्वाचार्यों की मान्यतानुसार जब नवदीक्षित मुनि को महाव्रतों का आरोपण करवाया जाता है उस समय वह शिष्य गजदन्त की भाँति ईषत प्रणत होकर महाव्रतों को स्वीकार करता है। इस मुद्रा में व्रत स्वीकार करने के पीछे यह प्रेरणा दी जाती है कि जैसे हाथी के दाँत बाहर आने के बाद पन: भीतर नहीं जाते वैसे ही पाँच महाव्रतों को अंगीकार करने के बाद पुनः संसार मार्ग की ओर प्रवृत्त मत होना। यथावत मुद्रा से भाव सुस्थिर बनते हैं। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उपस्थापना संस्कार की प्रासंगिकता ___ नव दीक्षित मुनि में पाँच महाव्रतों का आरोपण करना अथवा उसे चारित्र धर्म में स्थापित करना उपस्थापना कहलाता है। यह विधि-प्रक्रिया कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। यदि हम इस संस्कार विधि का मनोवैज्ञानिक प्रभाव देखें तो यह है कि जहाँ प्रव्रज्या के द्वारा संयमी जीवन की पूर्व ट्रेनिंग दी जाती है वहाँ उपस्थापना के बाद आवश्यक नियमों का तद्प पालन करना होता है इससे संयम पालन में दृढ़ता एवं सत्कार्यों के प्रति उत्तरोत्तर अध्यात्म रूचि का प्रादुर्भाव होता है। सम-विषम स्थितियों में समत्वयोग का अभ्यास होता है तथा मनोबल एवं आत्मबल विकसित होता है।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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