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________________ 230... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता भोजन के लिये दिन के समय को सर्वोत्तम एवं सुयोग्य माना है, क्योंकि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक की अवधि में सूर्य की किरणों से जो तत्त्व शरीर को प्राप्त होते हैं वे पाचन क्रिया को सक्रिय बनाने में सहायक बनते हैं। क्योंकि सूर्य की ऊर्जा से शरीर का तेजस् केन्द्र ( पाचन तन्त्र) सक्रिय होता है, जिससे भोजन आसानी से पच जाता है। सूर्य ऊर्जा के अभाव में तेजस केन्द्र की सक्रियता मन्द हो जाती है अतः रात में किया गया भोजन बराबर पच नहीं पाता है। यदि यह स्थिति कुछ दिनों तक यथावत बनी रहे तो शरीर अनेक अवांछित व्याधियों का शिकार हो सकता है । वर्षाकाल में अनेक बार आठ-आठ, दसदस दिनों तक सूर्य का प्रकाश देखने को नहीं मिलता। इस कारण उन दिनों अग्निमांद्य, अपच, अजीर्ण आदि की शिकायतें भी स्वतः हो जाती हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सूर्य ऊर्जा का आहार पाचन से घनिष्ठ सम्बन्ध है । रात्रिभोजन से अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, दमा, चिड़चिड़ा स्वभाव आदि बीमारियों का प्रकोप होने की संभावनाएँ अधिक रहती हैं तथा इन बीमारियों के होने के बाद इनसे शीघ्र राहत पाना भी कठिन होता है । सूर्योदय के साथ फैली हुई सूर्य की ऊर्जा एवं ऊष्मा के कारण सहनशक्ति, पाचनशक्ति, रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति विकसित होती है। आज तो सूर्य के माध्यम से अनेक चिकित्साएँ हो रही हैं। सूर्य किरण चिकित्साओं द्वारा विकट से विकट बीमारियों का निवारण हो रहा है। क्षय रोगी के कपड़ों में व्याप्त कीटाणु जो गर्म पानी में उबालने पर भी नष्ट नहीं होते हैं, वे सूर्य की आतापना से नष्ट हो जाते हैं। अतः सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त से पूर्व तक का काल ही भोजन के लिये उचित एवं प्रामाणिक है। रात्रिकाल में भोजन करने से विद्युत आदि का अनावश्यक खर्च होता है। कदाच विद्युत का कनेक्सन बिगड़ जाये तो मोमबत्ती, लालटेन से काम चलाना पड़ता है। बिजली की रोशनी में काम करने के अभ्यासी लालटेन - मोमबत्ती में साफ नहीं देख पाते हैं। अतः कीट-पतंगे आदि भोजन सामग्री के माध्यम से खाने में आ सकते हैं जिसके कारण कभी-कभी गंभीर बीमारियाँ हो जाती हैं तथा विषैले जन्तुओं के कारण प्राणों से भी हाथ धोना पड़ सकता है। आचार्य हेमचन्द्र ने रात्रिभोजन से होने वाले तात्कालिक दुष्परिणामों की चर्चा करते हुए कहा है कि रात्रि में भोजन करने से उसमें बहुत से जीव गिर जाते
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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