SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 228...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता शुद्ध और रात्रि का वातावरण अशुद्ध रहता है। इसका फलितार्थ यह है कि शुद्ध वायुमण्डल में भोजन करने से व्यक्ति निरोग रहता है और अशुद्ध में स्वास्थ्य बिगड़ने की संभावना रहती है। अत: पर्यावरण की दृष्टि से भी दिवसकृत भोजन उपादेय माना गया है। पारिवारिक लाभ की दृष्टि से मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य आत्मा से परमात्म पद की प्राप्ति है, जिसके लिये आत्म चिन्तन, ध्यान, स्वाध्याय आदि करना आवश्यक है। उन सभी सत्प्रवृत्तियों के लिये उचित समय एवं स्थान की अनुकूलता होना भी परमावश्यक है। शांत और एकांत वातावरण का होना भी जरूरी है। जिस घर में रात्रिभोजन न होता हो, वहाँ महिलाओं को रसोईघर से जल्दी छुट्टी मिल जाती है और धार्मिक आराधना के लिये उचित समय भी मिल जाता है। दूसरे जिन घरों में दिन में भोजन बनता है, वहाँ जैन संतों को भी भिक्षा सहज मिल जाती है। इससे गृहस्थ परिवारों को सामाजिक कार्यों के लिये भी अधिक समय मिल सकता है। तीसरा लाभ यह है कि जल्दी खाने एवं जल्दी सोने से प्रात: जल्दी उठ सकते हैं, जो स्वास्थ्य एवं स्वाध्याय के लिये सर्वोत्तम समय माना जाता है। अत: पारिवारिक दृष्टि से भी रात्रिभोजन का त्याग किया जाना गुणकारी है। स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से सर्य के प्रकाश में भोजन का निर्माण कर उसी प्रकाश में जो उसका आसेवन (भोजन) करता है, वह अनेक बीमारियों से बचता है। लेकिन पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण कर रहा व्यक्ति इस बात को विस्मृत कर अपने आपको रोगग्रस्त एवं पाप कर्मों के बाँधने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित कर रहा है। अस्पतालों में बढ़ती भीड़ इसका प्रतिफल है। रात्रिभोजन का त्याग इसलिए भी अनिवार्य है कि इससे अनेक सूक्ष्म जीवों की हिंसा का पाप लगता है एवं अपने उदर में सुषुप्तावस्था में रहे तंत्र को काम करना पड़ता है। भोजन के बाद पानी पीने के लिए जो पर्याप्त समय चाहिये, वह भी नहीं रह पाता है अत: पाचन क्रिया पूर्णत: नहीं हो पाती है। ___ अन्न के साथ जल की मात्रा पूरी नहीं होने से उदर की क्रियाशीलता भी मंद हो जाती है। इससे जीवन में रुग्णता की स्थिति भी बनती है। जबकि दिन
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy