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226... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
तब तक उसमें रहने वाली सूर्य किरणों के प्रभाव से हमारा पाचन-तंत्र ठीक काम करता है, उसके अस्त होते ही उसकी गतिविधि मंद पड़ जाती है जिससे अनेक रोगों की संभावनाएँ बढ़ जाती है। अतः रात्रिभोजन करना किसी भी स्थिति में हितकर नहीं है।
रात्रि में भोजन करने से विश्राम में बाधा उपस्थित होती है। हम समझते हैं कि गले के नीचे भोजन उतर जाने से वह पच जाता है, किन्तु ऐसा नहीं है। हकीकत यह है कि भोजन करने में जितना श्रम होता है उससे अधिक परिश्रम भोजन पाचन में होता है । पाचनतन्त्र शरीर का भीतरी तत्त्व है इसलिए शरीर को बाहर से नहीं, अन्दर से श्रम करना पड़ता है । जो लोग रात्रि में भोजन करते हैं। उनका पाचनतन्त्र सक्रिय न होने के कारण भोजन अपाच्य स्थिति में पड़ा रहता है। तत्फलस्वरूप बदहजमी, अपच, अजीर्ण, गैस, वमन आदि कई प्रतिकूल स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और स्वास्थ्य दिनानुदिन गिरता चला जाता है।
एक तथ्यपूर्ण बात यह है कि भोजन करने के बाद तुरन्त सो जाने पर शरीर की सारी ऊर्जा भोजन पचाने में ही व्यय हो जाती है। इसी के साथ जैसी गहरी निद्रा आनी चाहिए व्यक्ति उससे वंचित हो रात्रिभर स्वप्न संसार में गोते लगाते रहता है और करवटे बदलते रहता है। इससे शरीर एवं मन को पर्याप्त विश्राम न मिल पाने के कारण दैहिक स्वस्थता और मानसिक निर्मलता खण्डित होती है अन्ततः सद्मार्ग से च्युत होने की सम्भावनाएँ उपस्थित हो सकती हैं।
कुछ लोगों का तर्क है कि यदि रात्रि को आर्द्र आहार के स्थान पर सूखा आहार लिया जाये तो पाचन की उतनी समस्या नहीं होगी, किन्तु सूखे पदार्थ के उपयोग की बात भी अनुचित है। क्योंकि जब रात्रि में चारों प्रकार के आहार में से कोई भी आहार ग्राह्य नहीं है तो सूखे पदार्थ ग्राह्य कैसे हो सकते हैं? सूखे पदार्थों का आहार भी पाचन के लिए भी वैसा ही है जैसा आर्द्र पदार्थ का आहार । प्रकृति और पर्यावरण की दृष्टि से
प्रकृति की दृष्टि से भी रात्रिभोजन त्याज्य है। हम अनुभव करते हैं कि सूर्योदय होने के साथ-साथ क्षुधा की पीड़ा भी शुरू हो जाती है और उसके दिन के अन्तिम छोर तक पहुंचने पर क्षुधा वेदना भी उतनी ही बढ़ जाती है। जब वह अपनी यात्रा ढलान की ओर प्रारम्भ करता है, तदनुसार क्षुधा वेदना भी सीमित होने लगती है। यही कारण है कि लौकिक जगत में प्रातः काल का आहार