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________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 221 'रात्रौ अन्नं मांस समं प्रोक्तम्, मार्कण्डेय महर्षिणा । ' जैनेतर ग्रन्थों में नरक के चार द्वार बताये गये हैं1. रात्रिभोजन, 2. परस्त्रीगमन, 3. अचार भक्षण और 4. अनन्तकाय का भक्षण। इन द्वारों में रात्रिभोजन को प्रथम स्थान पर रखा गया है। महाभारत में कहा है कि जो लोग मद्यपान करते हैं, शराब पीते हैं, मांस, मछली, अण्डे का भक्षण करते हैं, रात को भोजन करते हैं और कन्दमूलअनन्तकाय का भक्षण करते हैं उनकी तीर्थयात्रा, जप, तप आदि अनुष्ठान निष्फल होते हैं। 1 159 यजुर्वेद में वर्णन है कि हे युधिष्ठिर ! देव हमेशा दिन के प्रथम प्रहर में भोजन करते हैं, ऋषि-मुनिजन दिन के दूसरे प्रहर में भोजन करते हैं, पितर लोग तीसरे प्रहर में भोजन करते हैं और दैत्य, दानव, यक्ष, एवं राक्षस संध्या के समय भोजन करते हैं। इन सभी देवादि के भोजन का समय जानकर भी जो रात्रिभोजन करता है, वह अनुचित करता है। 160 रात्रिभोजन वास्तव में भोजन है। योगवासिष्ठ में कहा गया है कि चातुर्मास में जो रात्रिभोजन का त्याग करता है, उसके इहलोक और परलोक में सभी मनोरथ पूरे होते हैं। 161 जैन दर्शन के अनुसार चातुर्मास के समय में जीवों की उत्पत्ति अधिक होती है इसलिये चौमासे में विशेष रूप से पाप कार्यों का त्याग करना चाहिये । स्कन्दपुराण में उल्लेख है कि जो प्रतिदिन एक बार भोजन करता है, वह अग्निहोत्र का फल प्राप्त करता है और जो सूर्यास्त के पूर्व ही भोजन कर लेता है उसे घर बैठे तीर्थयात्रा का फल प्राप्त होता है। 162 श्रावकाचार सारोद्धार आदि के अनुसार जिस तरह स्वजन और सम्बन्धियों की मृत्यु होने पर मनुष्य को सूतक लगता है उसी तरह सूर्य के अस्त होने पर भोजन किस तरह कर सकते हैं ? अतः सूर्यास्त के बाद रात्रिभोजन कभी भी नहीं करना चाहिए। 163 मज्झिमनिकाय के कीटागिरिसूत्र में कहा गया है कि एक समय बड़े भारी भिक्षु संघ के साथ भगवान काशी (जनपद) में चारिका करते थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को आमंत्रित किया और कहा 'भिक्षुओं ! मैं रात्रिभोजन से विरत हो भोजन करता हूँ। रात्रिभोजन के अतिरिक्त समय में भोजन करने से आरोग्य,
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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