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184... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
2. आज्ञापनी 'दरवाजा बन्द कर दो', 'भोजन कर लो' आदि आज्ञावाचक कथन भी सत्य या असत्य की कोटि में नहीं आते, केवल व्यवहार प्रचलित है।
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3. याचनी - 'यह दो' इस प्रकार की याचना करने वाली भाषा भी सत्य और असत्य की कोटि से परे होती है, अतः व्यवहारात्मक है।
4. पृच्छनी यह रास्ता कहाँ जाता हैं ? आप मुझे इस पद्य का अर्थ बतायेंगे ? इस प्रकार के कथनों की भाषा पृच्छनीय कही जाती है। इस भाषा में किसी प्रकार का विधि - निषेध नहीं होता है ।
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5. प्रज्ञापनी चोरी नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए आदि उपदेशात्मक वचन बोलना प्रज्ञापनी भाषा है।
6. प्रत्याख्यानी - किसी प्रार्थी की मांग को अस्वीकार करना प्रत्याख्यानी भाषा है जैसे तुम्हें यहाँ नौकरी नहीं मिलेगी अथवा तुम्हें भिक्षा नहीं दी जा सकती। यह भाषा भी सत्यापनीय नहीं है।
7. इच्छानुवर्त्तिनी - किसी कार्य में अपनी अनुमति देना अथवा किसी कार्य के प्रति अपनी पसन्दगी स्पष्ट करना इच्छानुवर्त्तिनी भाषा है जैसे तुम्हें यह कार्य करना ही चाहिए, मुझे झूठ बोलना पसन्द नहीं है आदि ।
8. अनभिगृहीता - जिसमें वक्ता अपनी न तो सहमति प्रदान करता है और न असहमति, ऐसा कथन अनभिग्रहीता कहलाता है जैसे एक साथ बहुत से काम आ गये हों और कोई पूछे कि 'अब मैं क्या करूँ?' तो कहना कि जैसा उचित समझो, वैसा करो ।
9. अभिगृहीता - निर्णयात्मक वचन बोलना जैसे कोई वैराग्यधारी पूछे कि ‘अब मैं दीक्षित हो सकता हूँ ?' तो कहना 'हाँ ! अब दीक्षित हो जाओ। ' 10. संशयकरणी - संशय करने वाली भाषा बोलना अथवा अनेकार्थक शब्दों का प्रयोग कर सामने वाले को संशय में डालना जैसे 'सैन्धव लाओ' यहाँ सैन्धव शब्द के अनेक अर्थ है - लवण, वस्त्र, पुरुष और घोड़ा। इस भाषा के द्वारा सुनने वाले को संशय होता है कि क्या लाना चाहिए ?
11. व्याकृता स्पष्ट अर्थ वाली भाषा बोलना ।
12. अव्याकृता गूढ़ अर्थ वाली या अस्पष्ट अर्थ वाली भाषा बोलना। ज्ञातव्य है कि जैन साधक सत्य एवं व्यवहार इन दो प्रकार के उपप्रकारों
की भाषा का प्रयोग कर सकता है, शेष दो प्रकार की भाषा निषिद्ध कही गयी