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अपूर्व नाद
जैन धर्म शाश्वत धर्म है, महामानवों द्वारा उपदिष्ट धर्म है। इस धर्म संघ में प्राणी मात्र के उत्थान हेतु कई तरह के सद् अनुष्ठानों का प्रावधान है। इनके माध्यम से वैयक्तिक एवं सामाजिक उभय जगत को सुसंस्कारित किया जाता है।
दीक्षा - एक विशिष्ट कोटि का संस्कार है। इसके द्वारा साधक इन्द्रियजयी, मोहजयी होने का अभ्यास करता हुआ आत्मजयी बन जाता है । ज्ञानियों की दृष्टि में आत्मजेता ही सबसे बड़ा विजेता है। संस्कार द्वारा चेतन ही नहीं, अचेतन द्रव्य भी अपने पूर्ण रूप में विकसित होकर मूल्यवान बन जाता है। जिस प्रकार खान से निकला लौहपिण्ड यन्त्रों से सुसंस्कृत होकर पूर्व से अधिक उपयोगी एवं मूल्यवान बन जाता है, उसी प्रकार जब व्यक्ति भौतिक संसाधनों को तिलांजलि देकर आत्म साधना में लीन होते हुए सुप्त संस्कारों के प्रकटीकरण का प्रयत्न करता है, तब उसका मूल्य स्वतः बढ़ जाता है। दीक्षा ऐसा ही एक अलौकिक उपक्रम है।
दीक्षित साधक पंच महाव्रतों का परिपालन करते हुए एवं लूंचन जैसे कष्ट साध्य मार्ग का अनुसरण कर संसार समुद्र से भी पार हो जाता है । समाहारतः संयम साधना का श्रेष्ठतम मार्ग यही है ।
सुयोग्या सौम्यगुणाजी विगत कई वर्षों से विधि-विधानों के विविध पक्षों पर गहन अध्ययन कर रही हैं। उनके इसी मानसिक एवं वैचारिक मंथन के फलस्वरूप जो नवनीत उत्पन्न हुआ है वह इस पुस्तक श्रृंखला के माध्यम से जिज्ञासु वर्ग के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्रस्तुत पुस्तक में इन्होंने संयमपथ की महत्ता एवं महानता को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सुस्थापित करते हुए कई रोचक पहलुओं पर भी प्रकाश डाला है। साध्वी श्री की कार्यनिष्ठा एवं दीर्घ संयमानुभव ने इस पुस्तक में जीवंतता का सिंचन कर दिया है। आपका श्रम शीघ्र ही सफलता की मंजिल को प्राप्त करें,
यही मंगल कामना।
अभ्युदय कांक्षिणी आर्या शशिप्रभा श्री