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________________ 174...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता पृथ्वी-पानी आदि के आहार से जीती है, पानी-हवादि का संयोग मिलने पर ही वृद्धि को प्राप्त करती है। मानव शरीर के समान इसमें भी अनेकविध रोग होते हैं उनकी चिकित्सा होती है।30 ___आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी इन पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों में जीवत्व स्वीकार किया है, अत: वनस्पति की सजीवता निर्विवाद रूप से सिद्ध है। त्रसकाय का सजीवत्व - बेइन्द्रिय शंख, कृमि आदि, तेइन्द्रिय - मकोड़ा, चींटी आदि, चउरिन्द्रिय - भौंरा, बिच्छू आदि, पंचेन्द्रिय - मनुष्य, पशु आदि त्रसकाय जीव कहलाते हैं। इनमें जीवत्व की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है।31 पाँच महाव्रत एवं छठा रात्रिभोजनविरमणव्रत एक अनुशीलन महाव्रत का शाब्दिक अर्थ है - महान् व्रत। सामान्य अर्थ के अनुसार हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पापकारी प्रवृत्तियों का पूर्णत: परित्याग कर देना महाव्रत कहलाता है। ___ जैन श्रमण के लिए पंचमहाव्रत मूलगुण माने गये हैं। जैन परम्परा में श्रमण और गृहस्थ दोनों के लिए अहिंसादि पाँच प्रकार के व्रतपालन का विधान है। अन्तर यह है कि श्रमण जीवन में उन व्रतों का पूर्णरूपेण पालन किया जाता है इसलिए वे महाव्रत कहलाते हैं। गृहस्थ जीवन में उनका आंशिक रूप से पालन होता है इसलिए गृहस्थ जीवन के सन्दर्भ में वे अणुव्रत कहे जाते हैं। श्रमण इन पाँच व्रतों का पूर्ण रूप से परिपालन करता है। ज्ञातव्य है कि नवदीक्षित शिष्य की उपस्थापना पंचमहाव्रत के आरोपण द्वारा की जाती है। जैन श्रमण की भूमिका में प्रवेश पाने हेतु पंचमहाव्रत को स्वीकार करना, एक अनिवार्य शर्त है। यहाँ अहिंसादि व्रतों का सामान्य विवेचन किया जा रहा है जो अत्यन्त प्रासंगिक है। 1. अहिंसा महाव्रत का स्वरूप हिंसा का सर्वथा त्याग करना श्रमण का पहला महाव्रत है। इस व्रत को स्वीकार करने वाला मुनि प्रतिज्ञा करता है-32 ___'हे भगवन्! मैं प्राणातिपात का पूर्णरूपेण प्रत्याख्यान करता हूँ। सूक्ष्म या स्थूल, त्रस या स्थावर जो भी प्राणी हैं उनके प्राणों का अतिपात मैं स्वयं नहीं करूँगा, दूसरों से नहीं कराऊंगा और अतिपात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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