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170... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त करता है तथा शारीरिक और मानसिक दुःखों से निवृत्त हो जाता है।
इस सम्बन्ध में दशवैकालिकसूत्र ( 3 / 14, 6/68 ) कहता है कि दुष्कर आचार का पालन करते हुए एवं दुःसह परीषहों को सहन करते हुए कुछ साधु देवलोक में जाते हैं और कई कर्मक्षीण कर सिद्ध होते हैं। इसी क्रम में यह भी कहा गया है कि उपशान्त, ममत्वरहित, अकिञ्चन, आत्म-विद्यायुक्त, यशस्वी और छह कायरक्षक मुनि शरद् ऋतु के चन्द्रमा की भांति निर्मल होकर मुक्त हो जाते हैं अथवा वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं।
स्पष्टार्थ है कि विशुद्ध चारित्र का अनन्तर फल मोक्ष है।
वयादि की अपेक्षा - उपस्थापना का क्रम
जैन आगमों में उपस्थापना के सम्बन्ध में अतिसूक्ष्म चिन्तन प्राप्त होता है। जो शिष्य उपस्थापना योग्य भूमि को प्राप्त नहीं हुआ है उसकी उपस्थापना करने वाले और जो शिष्य उपस्थापना करने योग्य भूमि को प्राप्त हो चुका है उसकी उपस्थापना न करने वाले गुरु को महान् दोषी बतलाया गया है। इसी अनुक्रम में यह विचार भी किया गया है यदि पिता-पुत्र, माता-पुत्री, राजासेवक, सेठ-मुनीम आदि एक साथ दीक्षित होते हों तो उन दोनों में से पहले किसकी उपस्थापना की जानी चाहिए ?
बृहत्कल्पभाष्य26 के अनुसार पिता और पुत्र दोनों व्यक्ति एक साथ दीक्षित हुए हों, दोनों ने एक साथ सूत्र का अध्ययन किया हो और एक साथ उपस्थापना योग्य भूमि को प्राप्त हुए हो तो पिता की उपस्थापना पहले और पुत्र की बाद में करें।
यदि पुत्र सूत्रादि पढ़कर योग्य नहीं बना हो और पिता सूत्रादि पढ़कर योग्य बन गये हों तो पिता की उपस्थापना पहले कर सकते हैं। यदि पुत्र योग्य बन गया हो और पिता सूत्रादि की अपेक्षा अयोग्य हो तो उसे प्रयत्नपूर्वक सूत्र सिखाकर दोनों को युगपत उपस्थापित करना चाहिए।
यदि उपस्थापना के दिन तक में पिता योग्यता को प्राप्त नहीं हुआ हो, पुत्र की उपस्थापना के लिए उन्होंने स्वीकृति दे दी हो तो पुत्र को पहले भी उपस्थापित किया जा सकता है।
और
यदि पिता नियति अवधि में सूत्र नहीं सीख नहीं पाता है और पुत्र के लिए