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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 165
जिस प्रकार चन्दन का भार ढोने वाला गधा केवल भार का भागी होता है, चन्दन का नहीं। उसी प्रकार चरित्रहीन ज्ञानी केवलज्ञान का भार ढोता है, सद्गति को प्राप्त नहीं कर सकता।
जैन शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि श्रेणिक, पेढालपत्र और सत्यकी दर्शन सम्पन्न होने पर भी सम्यक् चारित्र के अभाव में अधोगति को प्राप्त हुए।18 इससे चारित्र का मूल्य स्वत: सुसिद्ध है।
चारित्र का वैशिष्ट्य सम्यक्त्व की अपेक्षा से भी देखा जा सकता है, सम्यक्त्व की प्राप्ति चारित्ररहित को भी हो सकती है और नहीं भी हो सकती है, परन्तु जो सम्यक् चारित्रयुक्त होता है उसे सम्यक्त्व निश्चित रूप से होता ही है। उपस्थापना प्रदान करने का अधिकारी कौन ?
नवदीक्षित शिष्य को पंचमहाव्रत में स्थापित करने वाले गुरु किन गुणों से युक्त होने चाहिए ? इस सम्बन्ध में पृथक रूप से कोई वर्णन पढ़ने में नहीं आया है। यद्यपि पंचवस्तुक ग्रन्थ में उपस्थापनायोग्य शिष्य की चर्चा जरूर की गई है, किन्तु उपस्थापना अधिकारी गुरु को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया है। अत: इस विषय में अधिक कहना तो सम्भव नहीं है, किन्तु उपाध्याय प्रवर पूज्य मणिप्रभसागरजी महाराज साहब के अनुसार पूर्व में खरतरगच्छ परम्परा में बड़ी दीक्षा का अधिकार आचार्य या गणनायक के अलावा और किसी को भी नहीं था। प्रव्रज्या कोई भी दे सकता था, परन्तु उपस्थापना तो आचार्य ही करते थे। उसके बाद कारणवश परम्परा में परिवर्तन हुआ और यह परम्परा बनी कि जो पर्याय स्थविर हो, वह आचार्य अथवा गणनायक की अनुज्ञा से उपस्थापना करवा सकता है।
शास्त्र एवं आचरणा की अपेक्षा जो महानिशीथ आदि छेदसूत्रों का योगपूर्वक अध्ययन किया हुआ हो, बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला हो गाम्भीर्यादि गुणों से अलंकृत हो, गीतार्थ हो और सूत्रों का ज्ञाता हो वह मुनि उपस्थापना करने का अधिकारी है। इसके साथ यह परम्परा भी रही है कि महाव्रतारोपण का अधिकार योग्य मुनि को ही हो, साध्वी को नहीं, फिर ही वह प्रवर्तिनीपद या महत्तरापद पर भी आसीन क्यों न हो? छोटी दीक्षा करवाने का अधिकार भी मुनि को ही प्राप्त है, किन्तु खरतरगच्छ परम्परा में साध्वियाँ भी छोटी दीक्षा देती हैं, जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की अन्य परम्पराओं में प्रायः