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162...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
जा सकती है। इसके लिए कालविशेष का प्रतिबन्ध नहीं है। यह कालातीत साधना है।15 यह वयातीत साधना है अर्थात किसी भी वय में इस धर्म का पालन किया जा सकता है। न्यूनतम आठ वर्ष एवं अधिकतम साठ अथवा सत्तर वर्ष की मर्यादा द्रव्यलिंग (वेश धारण) की अपेक्षा समझनी चाहिए। उपस्थापना व्रतारोपण की आवश्यकता क्यों ?
जब हम यह चिन्तन करते हैं कि उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) की आवश्यकता क्यों है ? इस व्रतारोपण का मुख्य ध्येय क्या है ? तब यह प्रश्न भी उभरता है कि मुनि धर्म स्वीकार हेतु छोटी दीक्षा (प्रव्रज्या) और बड़ी दीक्षा (उपस्थापना) ऐसे दो व्रतारोप भिन्न-भिन्न काल में क्यों करवाये जाते हैं? सामायिकव्रत और पंचमहाव्रत का आरोपण एक साथ क्यों नहीं किया जा सकता ?
द्वितीय प्रश्न का प्राथमिक समाधान यह है. कि जैन श्रमण की साधना एवं उसके नियम कठोर होते हैं, उस कठिन मार्ग पर सहसा चलना मुश्किल है। फिर इस युग की पाश्चात्य संस्कृति में पले व्यक्तियों के लिए उस मार्ग का यथावत अनुसरण करना और भी दुष्कर हो सकता है। सम्भव है कि प्रव्रज्या इच्छुक मुनिधर्म की समस्त परिस्थितियों से भिज्ञ हो, यद्यपि कठिनाइयों में स्खलन की सम्भावना बन सकती है, अत: कुछ अवधि के लिए सामायिकव्रत द्वारा मुनिचर्या जैसा ही जीवन जीया जाता है। उस अन्तराल में कदाच मानसिक स्थिति डगमगा जाये और स्वयं को मुनि धर्म के पालन में असमर्थ महसूस करने लगे तो अपवादत: पुनर्गृहस्थ जीवन स्वीकार किया जा सकता है। इससे सामायिक चारित्र के खण्डन का दोष तो लगता है, किन्तु वह पंचमहाव्रत की महान प्रतिज्ञा का विराधक नहीं होता। स्पष्ट है कि दीक्षित की मनोभूमिका को ख्याल रखते हुए द्विविध व्रतारोपण की पृथक्-पृथक् व्यवस्थाएँ की गयी हैं। ___ इन द्विविध व्रतारोपण के पीछे यह हेतु भी माना जा सकता है कि पहले वैराग्यवासित साधक सामायिकव्रत के माध्यम से श्रमणधर्म की समग्र चर्याओं का सम्यक् ज्ञान अर्जित कर उसके विधिवत पालन का सामान्य अभ्यास साध ले, जिससे उपस्थापना के पश्चात महाव्रतों का विशद्ध रीति से आचरण किया जा सके तथा असावधानीवश होने वाली त्रुटियों से बचा जा सके। साथ ही श्रमण जीवन में आगत इष्ट-अनिष्ट स्थितियों को समभावपूर्वक सहने की क्षमता जागृत कर सकें।