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156...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता सुखशीलता का त्याग करने वाला और साधनामय जीवन की कठिनाइयों का अनुभव कराते हुए अकिंचनता का बोध कराने वाला उपक्रम है। वस्तुतः केशलोचन मुनि जीवन की पवित्रता को रेखांकित करने वाला एक चर्या है।
केशलोचन के फलस्वरूप कषाय, आवेश, आवेग के नियंत्रण, मन, वचन और काया की एकाग्रता, चित्त की स्थिरता, क्षमाभाव, आत्मनियंत्रण आदि भावों की उत्पत्ति होती है। सन्दर्भ-सूची 1. संस्कृत-हिन्दी कोश, पृ. 880 2. अनगारधर्मामृत, 9/97 3. कल्पसूत्र, सू. 284 4. (क) स्थानाङ्गसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, 3/2/187
(ख) व्यवहारसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, 10/16 5. (क) दशाश्रुतस्कन्ध, नवसुत्ताणि। दसवीं दशा, पृ. 558
(ख) वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाणमित्ते वि केसे तं रयणिं उवायणावित्तए। अज्जेणं खुरमुंडेण वा लुक्कसिरएण वा होयव्वं सिया। पक्खिया आरोवणा, मासिए खुरमुंडए, अद्धमासिए कत्तरिमुंडे, छम्मासिए लोए, संवच्छरिएवा थेरकप्पे।
कल्पसूत्र, 284 6. अनगारधर्मामृत, 9/86 ___7. संवेगरंगशाला, जिनचन्द्रसूरि (प्रथम), गा. 1220-1221
8. वही, गा. 1222 9. विधिमार्गप्रपा - सानुवाद, पृ. 101 10. वही, पृ. 102 11. गणिविद्या, गा. 24 12. विधिमार्गप्रपा-सानुवाद, पृ. 101 13. गणिविद्या, गा. 25 14. (क) गणिविद्या, गा. 26
(ख) विधिमार्गप्रपा-सानुवाद, पृ. 102 15. आचारदिनकर, पृ. 134 16. वही, पृ. 134 17. संस्तारक प्रकीर्णक, 18