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118...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के.....
सार रूप में कहा जा सकता है कि जैन धर्म में विधि-विधानों को लेकर अनेक परम्पराएँ विकसित हुईं, जिनमें सामाचारी एवं गुरु परम्परागत भेद की अपेक्षा दीक्षा की उपविधियों में भी अन्तर आया है फिर भी मूल विधि का स्वरूप यथावत रूप से विद्यमान हैं।
बौद्ध परम्परा में भी श्रमण जीवन का तात्पर्य समभाव की साधना ही है। जिस प्रकार जैन-विचारधारा में श्रमण जीवन का अर्थ इच्छाओं एवं आसक्तियों से ऊपर उठना तथा पापवृत्तियों का शमन माना गया है उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में भी तृष्णा का परित्याग एवं पापों का शमन श्रमण-जीवन का हार्द रहा है। बुद्ध ने कहा है - जो व्रतहीन है, मिथ्याभाषी है, वह मुण्डित होने मात्र से श्रमण नहीं होता। इच्छा और लोभ से भरा हुआ मनुष्य क्या श्रमण बनेगा? जो छोटे-बड़े सभी पापों का शमन करता है, उसे पापों का शमनकर्ता होने के कारण ही श्रमण कहा जाता है।97 इस प्रकार बौद्धदर्शन में भी श्रमण-जीवन की साधना के दो पक्ष हैं- आन्तरिक रूप से चित्तशुद्धि और बाह्यरूप से पापविरति।
वैदिक परम्परा में भी संन्यास जीवन का तात्पर्य फलाकांक्षा का त्याग माना गया है। उसमें समस्त लौकिक एषणाओं से ऊपर उठना एवं सभी प्राणियों को अभय प्रदान करना संन्यास का हार्द है। वैदिक-परम्परा में साधक संन्यास ग्रहण करते समय प्रतिज्ञा करता है कि “मैं पुत्रैषणा (कामवासना), वित्तैषणा (लोभ)
और लोकैषणा (सम्मान की आकांक्षा) का परित्याग करता हूँ और सभी प्राणियों को अभय प्रदान करता हूँ।''98
इस प्रकार भारतीय संस्कृति के सभी आचार-दर्शनों के सिद्धान्तानसार समत्व की साधना करना, राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठना और सामाजिक जगत में अहिंसक एवं निष्पाप जीवन जीना, यही संन्यास ग्रहण का मुख्य हार्द है। उपसंहार
दीक्षा एक उच्चस्तरीय साधना का जीवन है। यह जीवन परिवर्तन की अनूठी प्रयोगशाला है। इन्द्रिय नियन्त्रण का सम्यक् उपक्रम है। आध्यात्मिक विकास का श्रेष्ठ उपाय है। वह ऐसी अखण्ड ज्योतिर्मय यात्रा है जिसमें साधक असत से सत की ओर, तमस् से आलोक की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर अग्रसर होता है। यह अन्तर्मुखी साधना है जिसमें साधक बाहर से अन्दर