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108... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के ......
देने की परम्परा थी, तब व्रतग्रहण आदि के समय जिन मन्दिर की प्रदक्षिणा दी जाती थी, किन्तु वर्तमान में उपाश्रय या अन्य विशाल मण्डप बनवाकर दीक्षा के आयोजन किये जाते हैं तब समवसरण (त्रिगड़े) में विराजमान जिनबिम्ब की प्रदक्षिणा दी जाती है, अतः विधि सम्बन्धी ग्रन्थों में जिनालय एवं समवसरण दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है।
'खमासमणाणं हत्थेणं' वाक्य का प्रयोग किस अभिप्राय से? जैन धर्म की मूर्तिपूजक परम्परानुसार दीक्षा ( सामायिक व्रतारोपण), उपस्थापना (पाँच महाव्रतों का आरोपण), योगोद्वहन ( तपपूर्वक आगमसूत्रों का अध्ययन) आदि क्रियाकलापों के दौरान गुरु भगवन्त ' खमासमणाणं हत्थेणं अर्थात क्षमाश्रमणों के हाथ से ऐसा बोलकर व्रतधारियों को आशीर्वचन देते हैं और उनके मस्तक पर वासचूर्ण डालते हैं। यहाँ इस वाक्यपद का रहस्यात्मक अर्थ बतलाते हुए गुरु कहते हैं कि मैं सर्वविरति का आरोपण आदि स्वतन्त्र रूप से नहीं कर रहा हूँ, किन्तु क्षमाश्रमणों के अधीन बनकर कर रहा हूँ। गुरु ऐसा आशय कहकर सूचित करते हैं कि जिनशासन में स्वच्छन्दता को स्थान नहीं है। यहाँ पूर्व परम्परागत गुरु के अधीन होकर ही कुछ किया जा सकता है।
इससे विनयगुण का सर्जन और अहंकार - दम्भ आदि का विसर्जन होता है। विनम्रता से चेतना के अध्यवसाय ऋजु एवं मृदु बनते हैं। फलत: वह निश्चित रूप से मोक्षाधिकारी होता है।
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तीन बार चोटी ग्रहण क्यों ? श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में छोटी दीक्षा के समय बालों (शिखा) का मुण्डन नापित द्वारा किया जाता है, किन्तु कुछ केशराशि सिर के मूलस्थान पर छोड़ दी जाती है जिसे गुरु शुभमुहूर्त्त में तीन चोटी द्वारा अर्थात तीन बार में ग्रहण करते हैं। शिखा, यह सहस्रार चक्र, ज्ञान केन्द्र एवं पिनियल ग्रन्थि का स्थल मानी जाती है। जब गुरु द्वारा चोटी ग्रहण की जाती है तब ये केन्द्र जागृत और सक्रिय बनते हैं। संयमी जीवन में ज्ञान एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। इसी के साथ मस्तक में स्थित ग्रन्थियाँ भी सक्रिय बनती हैं एवं उनका स्राव सन्तुलित होता है।
जैन धर्म में तीन की संख्या का विशेष महत्त्व है। अनेकों कार्य तीन बार किये जाते हैं जैसे कि व्रत का उच्चारण, परमात्मा दर्शन, प्रभु प्रदक्षिणा आदि । व्यवहार जगत में भी देखते हैं कि किसी भी कार्य को निश्चित करने के लिए