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76...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के...... बाल्यावस्था का विरोध असम्भव है। चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने के अनेक कारण हैं, विशिष्ट शारीरिक अवस्था ही उसका कारण नहीं है, ऐसा जिनवचन है। अत: वय और चारित्र परिणाम का पारस्परिक अविरोध होने से दीक्षा का स्वीकार किसी भी वय में किया जा सकता है।42
शैशवकाल, कोमलता और निर्मलता का प्रतीक माना गया है। अनाग्रह बुद्धि के कारण यह अवस्था विषय को ग्रहण करने में जितनी सहायक होती है उतनी अन्य अवस्थाएँ नहीं। बचपन में दिये गये संस्कार परछाईं की तरह साथसाथ चलते हैं, किन्तु ढलती उम्र में दिये जाने वाले संस्कार न तो आत्मसात होते हैं और न वे चिरस्थाया पाते हैं। इसलिए दीक्षा के लिए वय नहीं, अपितु वैराग्य भाव और वैयक्तिक क्षमता को प्रमुख मानना चाहिए। यहाँ यह भी स्वीकारना होगा कि 'बचपन में ग्रहण की गयी दीक्षा अन्य वय की अपेक्षा अधिक मूल्यवान है।'
जैन आगम-साहित्य में अनेक उदाहरण ऐसे भी उपलब्ध होते हैं कि कुछ व्यक्ति कोई निमित्त या प्रेरणा पाकर अथवा भाव विभोर होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते हैं। आवश्यकचूर्णि में वर्णन आता है कि उज्जयिनी के राजा देविलासन्त की महारानी ने अपने पति के सिर पर एक श्वेत बाल देखकर कहा- धर्मदूत आ गया है। राजा ने उस श्वेत बाल को नगर में घुमाया और महारानी के साथ दीक्षित हो गये।43 यह लोकप्रसिद्ध उदाहरण है कि भरत चक्रवर्ती को मुद्रिका शून्य अंगुली देखकर वैराग्य उत्पन्न हो गया। काम्पिल्यपुर के राजा दुर्मुख इन्द्रध्वजा को गिरते हुए देखकर वैराग्यवासित बने और दीक्षा ग्रहण की। इसी तरह सूर्यास्त की लालिमा, मंडराते हुए बादल, इन्द्रधनुषी रंग आदि को देखकर भी वैराग्यवासित होने के उदाहरण इतिहास के पृष्ठों में भरे पड़े हैं।
इस प्रकार जैन आगम-साहित्य में वैराग्योत्पत्ति एवं प्रव्रज्या ग्रहण के अनेक कारण बताये गये हैं।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इन कारणों पर विचार करें तो सम्भवत: आजकल गुरु आदि का उपदेश सुनकर, स्वत: प्रतिबुद्ध होकर या अल्पवय में मृत्यु आदि का दृश्य देखकर या गुरुजनों के स्नेहाधीन होकर दीक्षा लेने के प्रसंग अधिक देखे जाते हैं।
यह ध्यातव्य है कि यदि दीक्षा दाता गुरु योग्य हो, तो मुमुक्षु के प्रव्रजित