SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 59 दीक्षा अयोग्य पुरुष 1. बाल - जन्म से आठ वर्ष तक का बालक। यह उम्र स्वाभाविक रूप से देशविरति या सर्वविरति ग्रहण के लिए अयोग्य मानी गयी है। निशीथचूर्णि के मतानुसार गर्भ के नौ मास सहित आठ वर्षीय बालक को दीक्षा दी जा सकती है- “आदेसेण वा गन्भट्ठमास दिक्खत्ति।" दोष - पंचवस्तुक में कहा गया है कि आठ वर्ष से कम उम्र के बालक को दीक्षा देना जिन शासन के पराभव का कारण होता है। इतनी छोटी उम्र में चारित्र के भाव प्राय: नहीं हो सकते हैं।19 वज्रस्वामी को तीन वर्ष की उम्र में दीक्षा देना अपवाद माना गया है। आपवादिक घटनाएँ सामान्य नियम का उदाहरण नहीं बन सकती। वज्रस्वामी छ: महीने की आयु से ही सावध के त्यागी थे, षड्जीवनिकाय की यतना करने वाले थे इसीलिए तीन वर्ष की उम्र में दीक्षा दी गयी। वस्तुतः आठ वर्ष से पूर्व बालक को दीक्षा नहीं देनी चाहिए, अन्यथा निम्न दोषों की सम्भावनाएँ रहती हैं- 1. बालक होने से वैराग्य भाव शिथिल हो सकता है। 2. बाल सुलभ चेष्टाओं से संयम की विराधना होती है। 3. ज्ञान के अभाव में चारित्र की भावना उत्पन्न नहीं होती। 4. 'ये मुनि लोग कितने कठोर हैं कि ऐसे दृद्ध मुँहे बच्चों को दीक्षा देते हैं। इस प्रकार निन्दा होती है। 5. बाल मुनि की मातृवत परिचर्या करने से स्वाध्याय में हानि होती है। इस प्रकार आठ वर्ष से कम वय के बालक को दीक्षित करना शास्त्रविरुद्ध है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी यह विषय विचारणीय है। 2. वृद्ध - पंचवस्तुक के अनुसार उम्र और शरीर दोनों से अत्यन्त शिथिल पुरुष वृद्ध कहलाता है।20 निशीथभाष्य एवं प्रवचनसारोद्धार की टीकानुसार जिस काल में जो उत्कृष्ट आयु हो उसके दस भाग करना चाहिए। उनमें से आठवें, नौवे और दसवें भाग में प्रवर्तमान 'वृद्ध' कहलाता है। जैसे इस काल में उत्कृष्ट आयु सौ वर्ष की मानी गयी है उसके दस भाग करने पर आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ भाग क्रमश: 71-80, 81-90, 91-100 वर्ष का होता है। इस अपेक्षा से 70 वर्ष से अधिक उम्र का वृद्ध होता है। उसे दीक्षा नहीं देना चाहिए।21 दोष - वृद्ध को दीक्षित करने पर निम्न दोष हो सकते हैं- धर्मसंग्रह में कहा गया है कि वृद्ध साधु ऊँचे आसन पर बैठने की इच्छा रखता है, विनय नहीं करता है, गर्व करता है, इसलिए वासुदेव का पुत्र भी हो फिर भी दीक्षा नहीं
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy