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3. चारित्री - शीलवन्त हो ।
4. ग्रहणाकुशल शिष्य परिवार को आचार आदि का बोध कराने एवं पालन करवाने में समर्थ हो ।
5. अनुवर्त्तक - शिष्यों के स्वभाव के अनुकूल बनकर उनके चारित्र की वृद्धि करने वाला हो। 6. अविषादी
अपमान आदि की स्थिति में खेद करने वाला न हो। 15
दीक्षाग्राही की योग्यताएँ
जैन धर्म में श्रमण जीवन स्वीकार करने वाले व्यक्ति के लिए 15 योग्यताएँ आवश्यक मानी गयी हैं। पंचवस्तुक के अनुसार वह विवेचन इस प्रकार है 161. आर्यदेशसमुत्पन्न - जो आर्यदेश में जन्मा हुआ हो ।
आर्यदेश साढ़े पच्चीस माने गये हैं। सामान्यतः जहाँ तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, बलदेव आदि उत्तम पुरुष जन्म लेते हैं उन्हें आर्यदेश कहा जाता है। 2. शुद्धजाति कुलान्वित - जो जाति- मातृपक्ष और कुल - पितृपक्ष दोनों हो।
पक्षों से
शुद्ध
अप्रत्याख्यानी,
प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 57
3. क्षीणप्राया शुभकर्मा - जिसके प्रत्याख्यानी कषाय नष्ट हो चुके हो।
अनन्तानुबन्धी,
4. निर्मलबुद्धि - जो अशुभ कर्मों का क्षय हो जाने से निर्मल विचार वाला हो।
5. संसार नैर्गुण्य विज्ञात- जिस व्यक्ति ने संसार की निर्गुणता - असारता को जान लिया हो।
6. संसार विरक्त जो संसार के भोगों से विरक्त हो ।
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7. मन्दकषाय जिसके क्रोधादि कषाय मन्द हों।
8. अल्पहास्य - जो हास्य आदि नोकषाय को क्षीण करने में प्रयत्नशील हो। 8. सुकृतज्ञ उपकारियों के उपकारक भाव को स्वीकार करता हो ।
10. विनीत - जो माता-पिता, गुरु आदि पूज्यों के प्रति विनय रखता हो। 11. राजसम्मत – जो राज्यविरुद्ध कार्य करने वाला न हो और राजा के द्वारा तिरस्कृत भी न हो ।
12. कल्याणांग जो पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण, सुन्दर, स्वस्थ शरीर वाला हो।