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28... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
निष्पत्ति- यदि गृहस्थ साधक के कर्तव्यों का समीक्षात्मक पहलू से विचार करें, तो स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर की भाँति दिगम्बर आचार्यों ने भी श्रावक के विविध कर्तव्यों का प्रतिपादन किया है। रयणसार में गृहस्थ के दो कर्त्तव्य बताए गए हैं, जिनमें चार प्रकार का दान देना और देव-शास्त्र-गुरू की पूजा करने का उल्लेख है। कषायपाहुड में चार कर्तव्यों का वर्णन है। इसमें दान, पूजा, शील और उपवास का समावेश किया है। कुरलकाव्य में श्रावक के पाँच कर्तव्यों का उल्लेख है जिसमें पूर्वजों के कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अतिथिसत्कार, बंधु-बांधवों की सहायता और आत्मोन्नति का वर्णन है। चारित्रसार में श्रावक के छ: कर्तव्यों का निर्देश है-इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप। पद्मनंदी पंचविंशतिका में देवपूजा, गुरूसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान-इन छ:कर्तव्यों को प्रमुख माना गया है। ये छ: कर्त्तव्य 'दैनिक षट्कर्म के रूप में भी प्रचलित हैं। आचार्य अमितगति ने सामायिक, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और उपसर्ग विजय इन छह प्रकारों को आवश्यक रूप माना है।
श्रावक के अन्य कर्तव्यों में तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार गृहस्थ साधक मारणान्तिक संलेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला हो। वसुनन्दी श्रावकाचार के अनुसार श्रावक को स्व-सामर्थ्य के अनुसार विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश
और पूजन विधान करना चाहिए। सागार धर्मामृत में कहा गया है कि उसे पर्व दिनों में अनशन आदि तप करना चाहिए, महापुरूषों की अनुप्रेक्षाओं का चिंतन करना चाहिए और दस धर्मों का पालन करना चाहिए। पंचाध्यायी में निर्देश है कि शक्ति के अनुसार मंदिर बनवाना चाहिए और तीर्थयात्रा आदि करनी चाहिए।57
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर तुलना की जाए, तो हम पाते हैं कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-दोनों परम्पराओं में श्रावक सम्बन्धी कर्तव्यों को लेकर नाम एवं संख्या की दृष्टि से भिन्नता है, यद्यपि मूल स्वरूप में बहुत कुछ साम्य है। श्रावक के दैनिक षट्कर्म __ दिगम्बर परम्परा में गृहस्थ साधक के लिए प्रतिदिन पालन करने योग्य छह कर्त्तव्य कहे गए हैं जो इस प्रकार हैं