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________________ 4... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... ___ (iv) आवश्यक वृत्ति में श्रावक को परिभाषित करते हुए कहा गया हैजिनशासनभक्ताः गृहस्थाः श्रावकाः भण्यते। अर्थात जिन गृहस्थों में जिनशासन के प्रति भक्ति और प्रीति है, उन्हें श्रावक कहा जाता है। आगम पाठों में श्रावक के लिये 'समणोपासग' शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका संस्कृत रूपांतरण श्रमणोपासक होता है। श्रमण का अर्थ होता है- साधु और उपासक का अर्थ होता है- उपासना करने वाला। जो श्रमण की पर्युपासना एवं सेवा-भक्ति करता है, वह श्रावक कहलाता है। जैन शास्त्रों में श्रावक के विभिन्न नाम जैन ग्रन्थों में गृहस्थ श्रावक को उपासक, श्रावक, देशविरत, आगारी, आदि नामों से सम्बोधित किया गया है। इस नामों में अर्थ की दृष्टि से कुछ विशेषताएँ हैं जैसे उपासक का अर्थ है-उपासना करने वाला। जो अपने अभीष्ट देव, गुरू एवं धर्म की आराधना करता है, वह उपासक कहलाता है। देशविरति का अर्थ है-अहिंसादि अणुव्रतों को धारण करने वाला। जो गृहस्थ हिंसादि पाप कार्यों का एकदेश त्याग करता है, वह देशविरति कहलाता है। इसी का दूसरा नाम संयतासंयत, विरताविरत भी है। आगारी का अर्थ है-घर में रहने वाला। जो पारिवारिक जीवन में रहकर धर्म करता है, वह आगारी कहलाता है। 'आगार' शब्द आवास अर्थ का भी वाचक है। इसके सागार, गेही, गृही आदि नाम भी हैं। श्रावक का यथार्थ लक्षण जैन टीका साहित्य के अनुसार जो सम्यग्दृष्टि है, अणुव्रती है, उत्तरोत्तर विशिष्ट गुणों की प्राप्ति के लिए प्रतिदिन मुनि धर्म और गृहस्थ धर्म की सामाचारी को सुनता है, वह श्रावक है। श्रावकत्व की प्राप्ति का हेतु जैन आचार्यों के अनुसार जब उदय प्राप्त अनन्तानुबन्धी- कषायचतुष्क और अप्रत्याख्यान-कषायचतुष्क का क्षय तथा विद्यमान दोनों प्रकार के कषायचतुष्क का उपशम होता है, तब वह चारित्राचारित्ररूप देशविरति को प्राप्त होता है। यहाँ देशविरत से तात्पर्य-बारह प्रकार के श्रावकधर्म को स्वीकार करना है और यही श्रावकत्व कहलाता है।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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