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जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक.... ...xlix हैं। इन द्विविध धर्म का संपोषण करने हेतु व्रती गृहस्थ को पर्वादि दिनों में पौषधव्रत एवं यथानुकूलता उपधान तप करना चाहिए। पौषधव्रत द्वारा चारित्र धर्म का पालन होता है तथा उपधान द्वारा श्रुत एवं चारित्र दोनों धर्मों का परिपालन होता है। इसी के साथ तद्रूप जीवन जीने का सम्यक अभ्यास भी हो जाता है अत: पाँचवें क्रम पर पौषध विधि का प्रासंगिक निरूपण तथा छठवें क्रम पर उपधान विधि का विस्तृत उल्लेख किया गया है।
तत्पश्चात संयमी जीवन में आ सकने वाली कठिनाईयों से पार हुआ जा सके और तनिक भी विचलित न बने, इस उद्देश्य से अन्तिम सातवें अध्याय में ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करने की विधि बतलाई गई है। यद्यपि कुछ आचार्यों के मतानुसार इस विषम काल में चार प्रतिमाएँ ही धारण की जा सकती हैं और कुछ के अनुसार प्रतिमा रूप धर्म विच्छिन्न हो गया है, जबकि दिगम्बर परम्परा में प्रतिमा रूप धर्म आज भी विद्यमान है।
सारतत्त्व यह है कि व्रतों का आरोपण अज्ञान दशा और अविवेक दृष्टि के निराकरण हेतु किया जाता है। व्रत-साधना से हमारा दृष्टिकोण परिष्कृत होता है
और अन्तःकरण में वह प्रकाश उत्पन्न होता है जिससे स्वयं के लक्ष्य और कर्त्तव्य को समझ सकें। व्रत-साधना एक व्यायाम प्रक्रिया है, जिसके प्रयोग से आत्मबल और सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्द्धन किया जाता है। इस साधना का वरदान महानता है। यदि साधना सच्ची हो, तो उसके सुपरिणाम तुरन्त प्राप्त होते हैं अत: हम गृहीत प्रतिज्ञा को विशुद्ध रूप से आचरित करें।