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426... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
धारण करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। दूसरे, इन व्रतों का पालन भी निर्दोष रूप से किया जाता है, क्योंकि जब व्यक्ति की दृष्टि सम्यक् या शुद्ध हो जाती है, उस समय वह चारित्र के विकास में भी आगे बढ़ने की आकांक्षा करने लगता है और इसी में वह अपनी शक्ति - अनुसार पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों, सामायिक एवं देशावगासिक को छोड़कर शेष शिक्षाव्रतों का अतिचार रहित पालन करता है।
3. सामायिक प्रतिमा- सामायिक का अर्थ समभाव की प्राप्ति है। इस प्रतिमा को स्वीकार करने के साथ ही समत्व की साधना का अभ्यास प्रारम्भ हो जाता है। दशाश्रुतस्कन्ध के मतानुसार जिस प्रतिमा में साधक अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा आदि तिथियों में परिपूर्ण पौषधोपवास तो नहीं कर पाता किन्तु सामायिक व्रत एवं देशावगासिकव्रत का सम्यक् परिपालन करता है, वह सामायिक प्रतिमा है | 20
दिगम्बर परम्परानुसार सामायिक प्रतिमा में तीनों सन्ध्याओं में सामायिक करना आवश्यक माना गया है। इनमें सामायिक का उत्कृष्ट- काल छः घड़ी का कहा है। एक बार में दो घड़ी की सामायिक करने पर तीन बार में छः घड़ी की अवधि सहज रूप से पूर्ण हो जाती है। आचार्य समन्तभद्र का अभिमत है कि इस प्रतिमा में 'यथाजात' सामायिक होती है। 21 यहाँ यथाजात से तात्पर्य है - नग्न होकर सामायिक करना । इस परम्परा में यथाजात सामायिक का तात्पर्य यह हो सकता है कि दिन में तीन बार दो-दो घड़ी तक नग्न रहने पर वह आगे चलकर दिगम्बर श्रमण बन सकता है, लेकिन श्वेताम्बर - परम्परा में इस प्रकार का कोई विधान नहीं है।
इस प्रकार सामायिक प्रतिमा में व्यक्ति सम्यक्त्व एवं व्रतों के साथ-साथ सामायिकव्रत की विशेष आराधना करता है। अपनी दैनिक क्रियाओं में आध्यात्मिक चिन्तन के लिए भी कुछ समय देता है तथा इस साधना के प्रयास से अभ्यासित होकर आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर होता चला जाता है।
4. पौषध प्रतिमा - पौषध का अर्थ है- आत्मभावों को पुष्ट करना। इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक प्रमुख रूप से पौषधव्रत की साधना करता है।
दशाश्रुतस्कन्ध में कहा गया है कि प्रथम की तीन प्रतिमाओं के साथ