SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 328... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक • उपधान की विधियुत आराधना करने वाला व्यक्ति कभी भी अधोगति में नहीं जाता है। उसके नरक, निगोद एवं तिर्यंच गति के द्वार बंद हो जाते हैं | 29 उपधान करने वाला जीव अपयश नामकर्म और नीचगोत्र कर्म का बंधन नहीं करता है, उसके लिए भवान्तर में भी पंचपरमेष्ठी स्वरूप नमस्कारमहामन्त्र सुलभ हो जाता है | 30 • वह भवान्तर में दास, भृत्य, दौर्भाग्य या नीच पुरूष के रूप में जन्म नहीं लेता है और विकलेन्द्रियता को भी प्राप्त नहीं करता है। 31 • वह देवलोक या उच्चगति के सुख का भोक्ता बनता है । • वह जीव आगामी पर्याय में उत्तम कुल को प्राप्त करता है । उसे सर्वांग सुन्दर काया मिलती है और वह समस्त प्रकार की कलाओं में कुशल होता है | 32 • देवेन्द्र की भाँति ऋद्धियों का स्वामी बनता है, काम भोग से निर्लिप्त होकर वैराग्य को उपलब्ध करता है और संयमी साधक बन जाता है। फलतः, सिद्धपुरी के शाश्वत् सुख का भोक्ता बन जाता है | 33 उपधान का मूल्यांकन करते हुए इसमें यह भी बताया गया है कि जो व्यक्ति उपधान वहन करता है, वह भवान्तर में सुख, समाधि और जैन धर्म की प्राप्ति करता है। इतना ही नहीं, उपधान तप का विचार मात्र करने से वह आराधक की गिनती में भी आ जाता है । 34 और जो उपधान किए बिना ही देवगुरू की अत्यंत भक्ति करने वाला हो नमस्कारमंत्र को ग्रहण करता हो, उसे नमस्कारमंत्र ग्रहण नहीं किए गए के समान ही जानना चाहिए | 35 उपधानप्रकरण में यह भी निर्दिष्ट है कि किसी व्यक्ति को पंचमंगल आदि सूत्र सुनकर याद हो गए हों, तब भी उन सूत्रों को जो विधिपूर्वक ग्रहण करता है, वही जीव सुलभबोधि कहा जा सकता है | 36 उक्त विवेचन से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि सभी जीवों के लिए नमस्कारमंत्र आदि सूत्रों को उपधानपूर्वक ग्रहण करना अनिवार्य है । क्योंकि जो जीव अनुपधानपूर्वक नमस्कारमंत्र आदि सूत्र को पढ़ते हैं, उन्हें महापाप का बंध करने वाला और अनन्त संसार को बढ़ाने वाला कहा गया है इसलिए सुलभबोधि बनने के लिए विशिष्ट क्षयोपशमी जीव को भी अवश्य उपधानतप करना चाहिए।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy