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________________ उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...321 करना, सर्व व्यसनों का त्याग करना, स्वावलम्बी जीवन जीना, स्वयं का काम स्वयं करना-इस प्रकार के नियमों का पालन करना होता है, जिनका धन-सम्पत्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। इन नियमों का पालन प्रत्येक उपधानवाही को करना होता है। इस प्रकार सदाचार, संयम और त्यागयुक्त मर्यादित जीवन जीने वालों के लिए 'अधिक खर्च करने वाला' कहना, यह सूर्य को अंधकार करने वाला कहने के समान है। अब रहा दूसरा प्रश्न, उपधान कराने वाले के खर्च की बात। इस सम्बन्ध में इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि जो अर्थ सम्पन्न होते हैं, वे पुण्यात्मा ही इस प्रकार के अनुष्ठानों में अपनी राशि का सदुपयोग कर सकते हैं। इससे स्वयं को धर्म की उन्नति और साधर्मिक-भक्ति का लाभ तो मिलता ही है, साथ ही समाज को भी पुण्यार्जन का अवसर प्राप्त होता है। ___ आज अधिकांश स्कूल, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, चिकित्सालय आदि बनवाने में रूचि लेता है और यह मानता है कि ये सब सामाजिक लाभ के साधन हैं और धर्म निमित्त द्रव्य का व्यय करना यह पारलौकिक लाभ देने वाला है, किन्तु यह बहुत बड़ी भ्रान्ति है। वस्तुत: धर्म-निमित्त द्रव्य का व्यय करने से जो चिरस्थायी लाभ प्राप्त होता है, वैसा एक भी लाभ अन्य कार्यों में द्रव्य व्यय से नहीं होता है। इससे मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि स्कूल, कॉलेज, हास्पीटल आदि बनवाने में लाभ नहीं है, परन्तु इतना सर्वविदित है कि इनसे भौतिक लाभ तो प्राप्त होता है, लेकिन आध्यात्मिक लाभ नहीं। उदाहरणार्थमहाविद्यालयों की जो शिक्षा प्रणाली एवं वहाँ की जो स्थिति है, उससे हमारी आर्य-संस्कृति का हास हो रहा है। ____ अन्तिम विचारणीय पक्ष है देवद्रव्य की वृद्धि। उपधान में प्राप्त धन राशि से तथा मालारोपण की उछामणी(बोली) से देवद्रव्य की वृद्धि होती है, यह बात बिल्कुल सत्य है, किन्तु देवद्रव्य की वृद्धि से किसी प्रकार का अनिष्ट होता है ऐसी कल्पना करना मिथ्या है। उपधान की धनराशि उपधानवाही देते हैं और उछामणी उपधान में प्रवेश करने वालों में से कोई-सम्पन्न वर्ग वाला बोलता है। इस हेतु नकरा(धनराशि) देना और बोली बोलना सभी के लिए जरूरी नहीं है। यह सब अपनी इच्छा और स्थिति पर निर्भर है, परन्तु डेढ़ माह लगभग महान् आराधना जिन देवाधिदेव परमात्मा की कृपा से निर्विघ्न पूर्ण हुई है, उनकी
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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