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286... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... सोहिअं, तीरिअं, किट्टिअं, आराहियं, जं च न आराहियं तस्स मिच्छामि
दुक्कडं।'
विधिमार्गप्रपा में यह पाठ किंचिद् भिन्नता के साथ इस प्रकार है
'नवकारसहिउ चउविहारू ! पौरूषी पुरिमड्ढो वा, तिविहारं चउविहारं वा, एकासणउं निवी आंबिलु वा, जा काइ वेला तीए भत्तपाणं पारावेमि।471
उक्त पाठ का उच्चारण करने के बाद पानी आदि जो भी ग्रहण करना हो, एक या तीन नमस्कारमन्त्र गिनकर ग्रहण करें। पौषधव्रती या उपधानवाही हो, तो आसन पर बैठकर नमस्कारमन्त्र गिनें और पानी ग्रहण करें। अन्य तपस्वी हों, तो वे भूमि पर बैठकर भी पानी आदि ग्रहण कर सकते हैं। पानी के पात्र को रूमाल आदि वस्त्रखण्ड से पोंछकर रखें। पानी के घड़े को खुला न रखें। जिसने चौविहार उपवास किया हो, उसे प्रत्याख्यान पारने की विधि नहीं करनी चाहिए। भोजन या पानी के बाद की चैत्यवंदन विधि
खरतरगच्छ-सामाचारी के अनुसार चतुष्पी, षड्पर्वी या सामान्य दिन में पौषध करने वाला श्रावक उस पौषधव्रत में आयंबिल या एकासन आदि का प्रत्याख्यान नहीं कर सकता है, उसके लिए उपवास करना आवश्यक माना गया है। केवल उपधानतप में पौषध करने वाले श्रावक के लिए आयंबिल, एकासन आदि करने की छूट है। इस सम्बन्ध में तपागच्छ आदि परम्पराएँ भिन्न मत रखती हैं। उनकी सामाचारी में उपधानतप के सिवाय पर्वदिनों या सामान्य दिनों में भी पौषध करनेवाला श्रावक पौषधव्रत में आयंबिल-एकासनादि तप कर सकता है।
दूसरे, जो पौषधवाही या उपधानवाही एकासन आदि तप करनेवाला हो, उसे स्वयं के घर पर जाकर या पौषधशाला में ही स्वगृह से आया हुआ भोजन करना चाहिए, किन्तु भोजन के लिए घूमना नहीं चाहिए। पौषधव्रती श्रावक को एकासन आदि करने के पश्चात उसी आसन पर बैठे हुए दिवसचरिम का प्रत्याख्यान कर लेना चाहिए। दिवसचरिम का प्रत्याख्यान करने पर पानी के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार का त्याग हो जाता है। उसके बाद पौषधव्रती पौषधशाला में आकर स्थापनाचार्य के समक्ष एक खमासमण देकर ईर्यापथ का प्रतिक्रमण करें। फिर चैत्यवन्दन के रूप में