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सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ...133
95. नवतत्त्वप्रकरण, 53 96. राजवार्तिक, भा. 1, 4/25 की टीका 97. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 95-96 98. जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन समालोचनात्मक अध्ययन पृ.-271-272 99. सम्यक्त्वसुधा, पृ.-10 100. 1. न्यायोपात्तं हि वित्त मुभयलोकहिताय। 2. समानकलशीलादिभिर
गोत्रजैर्वैवाह्यमन्यत्र बहुविरूद्धेभ्यः। 3. दृष्टादृष्ट बाधा भीतता। 4. शिष्टचरित प्रशंसनम्। 5. अरिषड्वर्गत्यागेना विरूद्धार्थप्रतिपत्त्या इन्द्रियजयः। 6. उपप्लुतस्थानत्याग: 7. स्वयोग्यस्याश्रयणम्। 8. प्रधानसाधु परिग्रहः। 9. स्थाने गृहकरणम्, लक्षणोपेत गृहवासः। 10. विभवाद्यनुरूपो वेषो विरूद्धत्यागेन। 11. आयोचितो व्ययः। 12. प्रसिद्धदेशाचार पालनम्। 13. गर्हितेषु गाढमप्रवृत्ति। 14. सर्वेष्ववर्णवादत्यागो विशेषतो राजादिषु। 15. संसर्गः सदाचारिति। 16. मातापितृपूजा। 17. अनुद्वेजनीया प्रवृत्तिः। 18. भर्त्तव्य भरणम्। 19. देवातिथिदीन प्रतिपत्तिः। 20. सात्म्यत: कालभोजनम्। लौल्यत्यागः। अजीर्णे भोजनम्। बलापाये प्रतिक्रिया। 21. अदेशकालचर्या परिहारः। 22. यथोचित लोकयात्रा हीनेषु हीनक्रमः। 23. अतिसंग वर्जनम्। 24. वृतस्थज्ञानवृद्ध सेवा। 25. परस्परानुपघातेनान्योन्यानुबद्ध त्रिवर्ग प्रतिपत्तिः। 26. अन्यतर बाधासंभवे मूलाबाधा। 27. बलाबलापेक्षणम्। 28. अनुबंधे प्रयत्नः। 29. कालोचितपेक्षा। 30. प्रत्यहं धर्मश्रवणम्। 31. सर्वत्राभिनिवेशः। 32. गुणपक्षपातिता।
33. ऊहापोहादियोगः। धर्मबिन्दु-सटीका, प्रथम अध्याय सू. 4-58 101. न्यायसंपन्नविभवः, शिष्टाचारप्रशंसकः। कुलशीलसमैः सार्धं, कृतोद्वहोऽन्यगोत्रजैः।।
पापभीरू: प्रसिद्धं च, देशाचारं समाचरन्।
अवर्णवादी न क्वापि, राजादिषु विशेषतः।। अनतिव्यक्तगुप्ते च, स्थाने सुप्रातिवेश्मिके। अनेकनिर्गमद्वार, विवर्जित निकेतनः।
कृतसंग: सदाचारै, मातापित्रोश्च पूजकः।
त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तश्च गर्हिते। व्ययमायोचितं कुर्वन्, वेषं वित्तानुसारतः। अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः, शृण्वानो धर्ममन्वहम्।।