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सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ... 97
सम्यग्दर्शन का फल
अर्हत्पुरूषों ने संसार का मूल कारण मिथ्यात्व और मोक्ष का मूल कारण सम्यग्दर्शन को स्वीकार किया है। सम्यग्दर्शन की महिमा अचिन्त्य है और उसका फल भी अनुपम, महान् और परमोत्कृष्ट है। सम्यग्दर्शन का साक्षात् फल तो तत्समय में ही प्रादुर्भूत अपूर्व सुख- शान्ति का आस्वाद है और परम्परा फल सिद्धत्व-पद की महान् उपलब्धि है। अनुसन्धाता विनोदकुमार जैन की शैली में जो अतीतकाल में सिद्ध हुए हैं और आगामी काल में सिद्ध होंगे, यह सब सम्यक्त्व का माहात्म्य है। 91
आचार्य कुन्दकुन्द सम्यग्दर्शन का फल बताते हुए कहते हैं- जो दर्शन से शुद्ध है, वही शुद्ध है, क्योंकि जिसका दर्शन शुद्ध है, वही निर्वाण को पाता है और जो सम्यग्दर्शन से रहित है, वह ईप्सित लाभ, अर्थात मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। 92 वे यह भी लिखते हैं- जिस पुरुष के हृदय में सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह निरन्तर प्रवर्त्तमान है, उसे कर्म - रूपी रज का आवरण नहीं लगता। पूर्व में जो कर्म बंधा हुआ हो, वह नाश को प्राप्त हो जाता है।3 सम्यक्त्व द्वारा ही संख्यात - असंख्यातगुना निर्जरा होती है। इस सन्दर्भ में आचार्य प्रभाचन्द्र का मन्तव्य यह है कि जिसे निर्मल सम्यग्दर्शन प्राप्त हो चुका है, उस पवित्र आत्मा को मैं मुक्त हुआ ही मानता हूँ। इसका कारण यह है कि मुक्ति का प्रधान अंग उसे ही निर्दिष्ट किया गया है तथा जो जीव चारित्र और ज्ञान से भ्रष्ट हैं, वे अपने-आपको सम्यक्त्व के बल से सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में पुनर्स्थापित कर मुक्ति को प्राप्त करते है, परन्तु जो प्राणी उस सम्यग्दर्शन से रहित है, वे इस संसार में कभी भी मुक्ति को प्राप्त नहीं होते हैं। 94 इस विषय की पुष्टि करते हुए जैनाचार्य यह भी कहते हैं- जो जीव अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यग्दर्शन का स्पर्श कर लेता है, उसके अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल परावर्तनकाल मात्र ही संसार में शेष रहता है, इससे अधिक नहीं 195
सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के पश्चात् भवधारण की सीमा का वर्णन करते हुए आचार्य गुणभद्र ने कहा है- जो मनुष्य जिस भव में दर्शनमोह (दर्शनसप्तक) का क्षय कर लेता है, वह तीन भव में नियम से मुक्त हो जाता है। जो सम्यग्दर्शन से पतित नहीं होते, उन्हें उत्कृष्टतः सात या आठ