________________
xiv... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
अन्तर देखा जाता है जिसका उल्लेख साध्वीजी ने प्रस्तुत कृति में किया है।
यद्यपि श्रावकों के व्रतों और उनके अतिचारों का उल्लेख तो हमें अनेक कृतियों में मिलता है, किन्तु इन व्रतों को स्वीकार करने संबंधी विधि-विधानों का उल्लेख करने वाले ग्रन्थ प्रायः विरल ही हैं। इस कृति के छठे अध्याय में उपधान तप विधि का सांगोपांग विवेचन किया गया है। नित्य उपयोगी नवकार मंत्र आदि सूत्रों के पठन-पाठन का शास्त्रीय अधिकार (eligibility) इस अनुष्ठान की आराधना के बाद ही प्राप्त होता है। श्रावकाचार सम्बन्धी मध्यकालीन ग्रन्थों में तद्विषयक चर्चा प्राप्त होती है ।
सातवाँ अध्याय गृहस्थ आचरणीय ग्यारह उपासक प्रतिमाओं से सम्बन्धित है। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार वर्तमान में यह विधि लुप्त हो चुकी है। सम्भवतः इसका मुख्य कारण घटता मनोबल एवं क्षीण होता शारीरिक संघयण होना चाहिए। यों तो प्रतिमा धारण की चर्चा आगमयुग से ही प्राप्त होती है । साध्वी सौम्यगुणा श्रीजी निश्चित ही धन्यवाद की पात्र हैं कि उन्होंने श्रावकों के व्रतारोपण संबंधी विधि-विधानों का बहुपक्षीय विश्लेषण इस एक ग्रन्थ में करने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत कृति में गृहस्थ व्रतारोपण सम्बन्धी विविध घटकों के विस्तृत विवरण के साथ तुलना और समीक्षा को समाहित कर इसे विद्वत योग्य भी बनाया गया है। हम अपेक्षा करते हैं कि भविष्य में भी साध्वीजी ऐसी कृतियों का प्रणयन कर जैन विद्या के क्षेत्र में अपना अवदान प्रस्तुत करती रहे।
डॉ. सागरमल जैन प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर