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________________ सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ...77 ___ 10. धर्मरूचि- वीतराग परमात्मा द्वारा प्ररूपित श्रुतधर्म और चारित्रधर्म में श्रद्धा करना धर्मरूचि सम्यक्त्व है। निष्पत्ति- पूर्व विवेचन से यह फलित है कि सम्यग्दर्शन के सभी भेदों में आत्मानुभूतिपूर्वक जो श्रद्धान होता है, वही सच्चा सम्यग्दर्शन है और वह चौथे गणस्थान से लेकर सिद्ध अवस्था तक निरन्तर बना रहता है। __ दूसरी फलश्रुति यह है कि सम्यग्दर्शन के उपर्युक्त भेद निमित्त, स्वामी एवं पात्र की अपेक्षा से कहे गए हैं जैसे-निसर्गज और अधिगमज-ये दो भेद उत्पत्ति अपेक्षा से किए जाते हैं। औपशमिक आदि तीन भेद दर्शनमोह (अन्तरंग कारण) की अपेक्षा से किए गए हैं। निसर्ग सम्यक्त्व आदि दस भेदों में प्रारम्भ के आठ भेद कारण अपेक्षा से किए गए हैं और अन्त के दो भेद ज्ञान के सहकारीगुण की अपेक्षा से किए हैं। सराग और वीतराग-ये दो भेद पात्र अथवा स्वामी की अपेक्षा से किए गए हैं। इसी प्रकार निश्चय और व्यवहार ये दो भेद कारण-कार्य अथवा निमित्त-नैमित्तिक की अपेक्षा से किए हैं। तीसरी विशिष्टता यह है कि भेद की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन एक है, उत्पत्ति की अपेक्षा से दो प्रकार का है, साधन-साध्य की अपेक्षा से तीन प्रकार का, सहकारी कारण की अपेक्षा से दस प्रकार का, शब्दों की अपेक्षा से संख्यात प्रकार का, श्रद्धान करने वालों की अपेक्षा से असंख्यात प्रकार का तथा श्रद्धान करने योग्य पदार्थों की अपेक्षा से अनंत प्रकार का है।29 यदि सम्यग्दर्शन के भेद-प्रभेदों के सम्बन्ध में विकासक्रम की दृष्टि से विचार करें, तो सम्यग्दर्शन के द्विविध भेद-निसर्गज और अधिगमज का उल्लेख जैनागमों में एकमात्र स्थानांगसूत्र में उपलब्ध होता है।30 उसके पश्चात तत्त्वार्थसूत्र आदि में पढ़ने को मिलता है।31 द्विविध भेदों में द्रव्यभाव, निश्चय-व्यवहाररूप सम्यक्त्व का उल्लेख मध्यकालीन प्रवचनसारोद्धार में प्राप्त होता है।32 सम्यग्दर्शन के त्रिविध भेदों-कारक, रोचक आदि का उल्लेख आगमिक व्याख्या साहित्य का सुप्रसिद्ध ग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य में मिलता है।33 जैनागमों में यह वर्गीकरण लगभग कहीं भी नहीं है। सम्यग्दर्शन के पंचविध भेदों में से औपशमिकादि दो का उल्लेख स्थानांगसूत्र में मिलता है, शेष भेदों का नहीं। स्वरूपतः इन भेदों का युगपद्
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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