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सम्पादकीय
जैन धर्म आत्मोपलब्धि या स्व स्वरूप उपलब्धि की साधना है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वह आत्मा को परमात्मा बनाने की कला है। जैन धर्म में साधना के दो मार्ग बताए गए हैं-एक श्रमण धर्म और दूसरा गृहस्थ धर्म। जैन धर्म निवृत्ति प्रधान होने से प्राथमिकता तो मुनि जीवन की साधना को ही देता है, किन्तु जो मुनि जीवन को स्वीकार करने में असमर्थता का अनुभव करते हैं। उनके लिए गृहस्थ धर्म की व्यवस्था की गई। इसे सागार धर्म भी कहा जाता है। गृहस्थ धर्म के अन्तर्गत मुख्य रूप से छह आवश्यक, षट्कर्म, बारह व्रत, ग्यारह प्रतिमा और अन्तिम समय में समाधिमरण की अनुशंसा की गई है। ___ गृहस्थ जीवन के दो पक्ष होते हैं-एक सामाजिक जीवन और दूसरा धार्मिक जीवन। सामाजिक जीवन के अन्तर्गत षोडश संस्कार का उल्लेख आचार दिनकर आदि ग्रन्थों में मिलता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैन धर्म के प्राचीन ग्रन्थों में गृहस्थ के सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन से संबंधित षोडश संस्कारों का विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, जबकि धार्मिक जीवन के अंगीभूत बारह व्रतों, ग्यारह प्रतिमाओं आदि का उल्लेख आगम युग से ही देखने को मिलता है। . उपासकदशा नामक आगम में गृहस्थ के धार्मिक जीवन से सम्बन्धित बारह व्रतों, उनके अतिचारों एवं समाधिमरण का विस्तृत उल्लेख किया गया है। दशाश्रुतस्कन्ध नामक आगम में गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। आचार दिनकर में यद्यपि गृहस्थ के षोडश संस्कारों के अन्तर्गत व्रतारोपण का उल्लेख आया है फिर भी इतना निश्चित है कि गृहस्थ के पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन से संबंधित विधि-विधानों के प्रति जैनाचार्यों की दृष्टि उपेक्षित ही रही है।
साध्वी श्रीसौम्यगुणाजी ने गृहस्थ के सामाजिक जीवन से संबंधित संस्कारों का विवेचन इसके पूर्व खण्ड में किया है। प्रस्तुत कृति में उन्होंने गृहस्थ के धार्मिक जीवन से संबंधित विधि-विधानों की चर्चा की है। यदि जैन साहित्य का