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________________ जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...55 पंचाशक एवं धर्मबिन्दु के अनुसार रात्रिभोजन का त्यागी, नवकारसी आदि प्रत्याख्यान करने वाला, बाईस अभक्ष्य एवं बत्तीस अनन्तकाय का त्यागी, अर्हत्प्रतिमा का पूजक, सुदेव, सुगुरू एवं सुधर्म को मानने वाला साधक जघन्य श्रावक है। बारह व्रतों में से कुछ व्रतों का पालन करने वाला मध्यम श्रावक कहलाता है। सभी व्रतों का आचरण करने वाला उत्कृष्ट श्रावक माना गया है। इसके सिवाय जैन गृहस्थ के लिए श्वेताम्बर के अनुसार चौदह, इक्कीस, पैंतीस, आदि सामान्य गुणों एवं दिगम्बर मतानुसार अष्टमूलगुणों से सम्पन्न होना और सप्त व्यसन आदि से रहित होना आवश्यक माना गया है। यदि पूर्वोक्त विवेचन के आधार पर गृहस्थ-धर्म की तुलना वैदिक एवं बौद्ध परम्परा के साथ की जाए, तो विदित होता है कि जिस प्रकार जैन परम्परा में गृहस्थ साधक के लिए कुछ आवश्यक नियम कहे गए हैं, वैदिक परम्परा में गृहस्थ साधक के लिए इस प्रकार के आवश्यक नियमों का कोई प्रावधान नहीं है। गीता के अभिमत से मोक्ष के लिए कर्मयोग (गृहस्थ धर्म) और कर्मसंन्यासदोनों ही निष्ठाएँ पूर्वकालीन हैं। गीताकार ने संन्यासी व गृहस्थ दोनों को साध्य प्राप्ति का अधिकारी माना है। गीता के अनुसार गृहस्थधर्म अथवा संन्यासधर्म दोनों में से किसी एक का निष्ठापूर्वक आचरण करने वाला दोनों के ही फल को प्राप्त करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दूधर्म में संन्यासमार्ग और गृहस्थमार्ग दोनों को लक्ष्य प्राप्ति की दृष्टि से समान महत्त्व दिया गया है। यही कारण कहा जा सकता है कि इस धारा में गृहस्थ धर्म को लेकर पृथक् रूप से कोई विवेचना नहीं की गई है, फिर भी कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। 81 यदि बौद्ध परम्परा की दृष्टि से आकलन करें, तो यह कहना चाहिए कि जैन परम्परा की भांति बौद्ध परम्परा में भी गृहस्थ उपासकों के लिए आवश्यक गुणों (मार्गानुसारी-गुण) का विधान वर्णित है। वे नियम उनके पिटक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। जैसा कि जैन धर्म की आचार संहिता में गृहस्थ के लिए सर्वप्रथम सम्यक् श्रद्धावान् होना जरूरी माना गया है, वह जब तक सम्यक्त्वव्रत को स्वीकार नहीं कर लेता, तब तक बारहव्रत, पंचमहाव्रत आदि श्रेष्ठ व्रतों को भी ग्रहण नहीं कर सकता, अतः गृहस्थधर्म में प्रवेश करने के लिए सम्यक्तवव्रत को अनिवार्य अंग माना गया है, उसी प्रकार बौद्ध - विचारणा में भी
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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