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अन्त्य संस्कार विधि का शास्त्रीय स्वरूप ...319 साथ चिता पर लेटे जाने के उल्लेख मिलते हैं।
दाह विधि- उपर्युक्त सभी क्रियाएँ सम्पन्न होने के बाद दाह क्रिया प्रारम्भ की जाती है। उस समय अग्नि में आहुतियाँ दी जाती है। उनकी धारणानुसार वे आहुतियाँ शव को स्वर्ग पहुँचाती हैं। इस अवसर पर प्रार्थनाएँ, सम्बोधन आदि कई अन्य विधान भी किए जाते हैं।
पुनर्गमन- शव की दाह क्रिया सम्पूर्ण हो जाने के बाद शवयात्रा में साथ जाने वाले लोग इधर-उधर न देखते हुए व नीचे दृष्टि रखते हुए घर की ओर लौट आएं। उस समय शोकार्त्त होकर अश्रुपात भी न करें। मरणोत्तरकालीन विधियाँ
यह क्रिया स्नान विधि पूर्वक की जाती है। उदककर्म-मृतक की अन्त्येष्टि क्रिया के अनन्तर मृतक को जल देने की क्रिया की जाती है। स्नान के तुरन्त बाद कौओं के लिए उबाले हुए चावल और मटर के कुछ दाने भूमि पर बिखेर दिए जाते हैं। इसके पीछे यह धारणा है कि मृतक व्यक्ति पक्षियों के रूप में प्रकट होता है किन्तु यह अवधारणा उचित नहीं लगती है।
अशौच- मृत्यु के सूतक का काल मृतक की जाति, आयु और लिंग भेद से भिन्न-भिन्न बताया गया है। ब्राह्मण व क्षत्रियों के लिए सूतक की सामान्य अवधि दस दिन तथा वैश्य व शूद्रों के लिए क्रमशः पन्द्रह दिन और एक मास निर्धारित की गई है।21 वैकल्पिक दृष्टि से तीन या दस दिन की अवधि कही गई है। वेदज्ञाता ब्राह्मण के लिए तीन दिन की अवधि मानी है तथा यज्ञीय कर्म करने वाले ब्रह्मचारी, कारीगर, शिल्पी, राजा, वैद्य दासी-ये तत्काल शुद्ध हो जाते हैं। उक्त अपवाद समाज की सुविधा पर आधारित है। आजकल अशौच की अवधि ब्राह्मण के लिए दस दिन, क्षत्रिय के लिए बारह दिन, वैश्य के लिए पन्द्रह दिन
और शूद्र के लिए एक मास है।28 अशौच की यह अवधि प्रौढ़ व्यक्तियों की मृत्यु के सम्बन्ध में है। दो वर्ष से कम आयु के शिशु की मृत्यु से केवल मातापिता को एक या तीन रात्रि के लिए सूतक लगता है, कुल के अन्य सदस्यों को सूतक नहीं लगता है। इसी प्रकार पिता, माता, मित्र, श्वसुर, भानजा आदि की मृत्यु होने पर कितने दिन का सूतक रहता है तथा सूतक वालों के लिए क्या करने योग्य है और क्या नहीं करने योग्य है? इन सभी पक्षों का हिन्दू ग्रन्थों में स्पष्ट विवेचन है।