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308... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
वैदिक परम्परा में यह संस्कार उसके भावी जीवन के सुख या कल्याण की कामना को लेकर किया जाता है, क्योंकि हिन्दू परम्परा इहलोक की अपेक्षा परलोक को अधिक महत्त्व देती है। सनातन परम्परा में इस संस्कार की आवश्यकता को लेकर अनेक कारण माने गए हैं। सर्वप्रथम मृत्यु के भय से मुक्त होने के लिए इस संस्कार का उद्भव हुआ, क्योंकि आदिम मानव के लिए मृत्यु जीवन का प्राकृतिक अन्त न होकर एक असाधारण घटना थी। दूसरा कारण हिन्दू अवधारणा पर आधारित है कि मृत व्यक्ति की आत्मा मोहासक्ति के कारण घर के आस-पास ही घूमती रहती है तथा सम्बन्धियों से पृथक् कर दिए जाने के कारण वह परिवार को क्षति भी पहुँचा सकती हैं, इसके निवारणार्थ इस संस्कार का उद्गम हुआ । पूर्वकाल में मृतात्मा को किसी प्रकार का कष्ट न उठाना पड़े, तदहेतु आवश्यक पदार्थ भी अन्त्य क्रिया के साथ दे दिए जाते थे। आवश्यक वस्तुओं में अनुस्तरणी या एक वृद्ध गाय या एक बकरा दिया जाता था । पूर्ववर्तीकाल में ये वस्तुएँ मृतक के साथ ही अग्नि में जला दी जाती थीं। इस समय वे ब्राह्मणों को दी जाती हैं और यह विश्वास किया जाता है कि वे किसी रहस्यपूर्ण माध्यम द्वारा उक्त वस्तुएँ यमलोक पहुँचा देते हैं। 1
स्पष्टार्थ है कि हिन्दू परम्परा में इस संस्कार की आवश्यकता के पीछे मृत्यु भय को दूर करना, मृतात्मा से परिवार की सुरक्षा करना, मृतात्मा द्वारा हो सकने वाले उपद्रवों को दूर करना आदि अनेक कारण अन्तर्निहित हैं। साथ ही मृतक का मार्ग प्रशस्त बने, उसे किसी प्रकार की तकलीफ न हो ये प्रयोजन भी अनिवार्य रहे हैं। इससे यह भी निश्चित हो जाता है कि वैदिक मत में यह संस्कार भौतिक सुख-सुविधाओं से सम्बद्ध रहा है, जबकि जैन परम्परा में इस संस्कार का सम्बन्ध आध्यात्मिक विकास से जुड़ा हुआ है। अन्त्य संस्कार करवाने का अधिकारी कौन ?
जैन परम्परा में मृत्यु से पूर्व की आराधना हेतु निर्ग्रन्थ मुनि को और देह की अन्त्येष्टि क्रिया एवं मरणोत्तरकालीन क्रियाओं हेतु जैन ब्राह्मण, गृहस्थ श्रावकवर्ग और पारिवारिक पुत्र आदि को इस संस्कार का अधिकारी माना गया है। वैदिक परम्परा में इस संस्कार से सम्बन्धित क्रियाओं के लिए ब्राह्मण एवं स्वजन पुत्र आदि वर्ग को अधिकार के रूप में नियुक्त किया गया है। 3