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स्नेह नाद
भारतीय संस्कृति आचार प्रधान संस्कृति रही है। आचार की सात्त्विकता ही विचारों को सात्त्विक बनाती है, सदाचार ही सर्वांगीण विकास का मूल सूत्र है। अनाचार या दुराचार द्वारा आंशिक या शीघ्र सफलता प्राप्त भी हो जाए तो वह Temporary होती है।
जिस प्रकार व्यवहार जगत में Doctor, Engineer,Advocate आदि बनने के लिए प्रारम्भ से ही उसी क्षेत्र से सम्बन्धित अध्ययन करवाया जाता है तभी वह उस क्षेत्र में सफलता के शिखर को प्राप्त करता है। यह सब तो भौतिक उपलब्धियाँ है। आध्यात्मिक जगत की अपेक्षा विचार करें तो माता-पिता का प्रमुख दायित्व अपने बच्चों को सुसंस्कारी बनाना है। प्रदत्त संस्कारों के आधार पर ही उसके कुल, गौत्र, परिवार, राष्ट्र, नगर आदि की कल्पना की जाती है।
संस्कार किसी पर थोपे नहीं जा सकते या उनका आरोपण कहीं बाहर से नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार बीज को प्रारम्भ से ही खाद, पानी, रोशनी आदि दी जाती है तब वह विराट वृक्ष का रूप धारण करता है उसी प्रकार जन्म से पूर्व ही बालक में सत्संस्कारों का सिंचन करने पर वह मानवीयता आदि गुणों से ओत-प्रोत होता है।
माता-पिता का कर्त्तव्य मात्र बालक को जन्म देना ही नहीं अपितु उसे मानवोचित गुणों से सत्संस्कारित करना भी है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर भारतीय परम्परा में षोडश संस्कारों का विधान किया गया है जो एक मानव को मानव रूप में जीवंत रखने हेतु जन्म से मृत्यु तक सूर्य प्रकाश सम सहयोगी बनते हैं।
यदि महापुरुषों की जीवन यात्रा का अवलोकन किया जाए तो एक Common Factor सभी में नजर आता है कि उन्हें जन्म से ही माता-पिता ने उसी सांचे में ढाला। आज हमारे समाज की जो दशा हो रही है उसे देखकर संस्कार आरोपण की कमी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। साध्वी सौम्यगुणाजी ने जैन समाज में लुप्त हो रही संस्कार आरोपण की क्रिया के पुनर्जागरण का अतुलनीय प्रयास किया है। इसके द्वारा सर्वप्रथम वैदिक रीति रिवाजों से हो रहे संस्कार विधानों को कम किया जा सकता है और इसी के साथ विदेशी संस्कारों के चढ़ते उफान को भी नियंत्रित किया जा सकता है। आज जिस स्वस्थ सामाजिक संरचना की आवश्यकता है उसमें संस्कार विधान प्रमुख सहयोगी हो सकता है।
सौम्याजी ने अपने अध्ययन, चिंतन एवं शोध परक दृष्टि के द्वारा इसे सप्रमाण ग्राह्य बनाया है। साध्वीजी इसी प्रकार श्रुत सागर के अमूल्य रत्नों की गवेषणा कर उन्हें जन-जन के लिए उपयोगी बनाए तथा जिनशासन के नभांगण को अपनी कृतियों से प्रकाशित एवं शोभित करें, यही मंगल कामना।