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________________ 178... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन नहीं है। वस्तुत: वह कृत्य जिसके द्वारा व्यक्ति को गुरु, वेद, यम, नियम के व्रत और देवता के सामीप्य के लिए दीक्षित किया जाए उपनयन कहलाता है। जैन परम्परा में उपनयन शब्द का अभिप्रेत्यार्थ आध्यात्मिक उपासना पद्धति से किया गया है। उपनयन का प्रचलित अर्थ है जनेऊ पहनना, वेदाध्ययन की दीक्षा देना । " आचारदिनकर के अनुसार जिस संस्कार से प्राणी वर्ण के क्रम से आरोहण करे या अभ्युदय को प्राप्त करे, वह उपनयन संस्कार है। 7 उपवीत, यज्ञोपवीत, उपनीत - ये उपनयन के पर्यायवाची एवं समानार्थक शब्द हैं। इस दृष्टि से उपवीत का अर्थ जनेऊ भी किया गया है। 8 यज्ञोपवीत शब्द ‘यज्ञ' और 'उपवीत' - इन दो शब्दों के योग से बना है, जिसका अर्थ है-यज्ञ से पवित्र किया गया सूत्र । यज्ञोपवीत को व्रत बन्ध, उपनयन और जनेऊ भी कहा गया है। हिन्दू परम्परा में साकार परमात्मा को ‘यज्ञ' और निराकार परमात्मा को 'ब्रह्म' कहा गया है। इन दोनों को उपलब्ध करवाने वाला यह सूत्र यज्ञोपवीत कहलाता है। ब्रह्मसूत्र, सवितासूत्र और यज्ञसूत्र इसी के नाम हैं। इस प्रकार 'यज्ञोपवीत' शब्द व्यापक अर्थ में प्रचलित है। यदि हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उपनयन का अर्थ देखें, तो आज उपनयन का निहितार्थ आचार्य के सन्निकट रहना एवं विद्याध्ययन करना प्रायः समाप्त हो चुका है। आज यह संस्कार 'जनेऊ पहनने के अर्थ में ही अधिक प्रचलित है। यहाँ विशेष रूप से यह उल्लेख्य है कि जैन परम्परा में इस संस्कार के लिए उपनयन, उपवीत, उपनीत- ये तीन शब्द व्यवहृत हुए हैं और हिन्दू परम्परा में यज्ञोपवीत शब्द का प्रयोग हुआ है। दोनों परम्पराओं में इस संस्कार नामों को लेकर यह भेद यज्ञ कर्म की अपेक्षा से है। वैदिक परम्परा यज्ञ प्रधान है, इसलिए उपवीत शब्द को यज्ञोपवीत की संज्ञा प्रदान की है। उपनयन संस्कार की मौलिक आवश्यकता इस संस्कार की आवश्यकता का मूल प्रयोजन क्या रहा होगा ? इस सम्बन्ध में विचार करते हैं, तो अनेक तथ्य प्रकट होते हैं। इस संस्कार का मुख्य सम्बन्ध सामाजिकता से है । इसका उद्देश्य युवक को नागरिक कर्त्तव्यों के परिपालन के योग्य बनाना है। गुरु के सान्निध्य में सुसंस्कारों को प्राप्त किया हुआ युवक ही जनसाधारण के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझ सकता है तथा सामुदायिक जीवन को सुरक्षित रख
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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