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नामकरण संस्कार विधि का प्रचलित स्वरूप ...133
अधिकांश परम्पराओं में प्रारम्भ के दस दिन सूतक काल के रूप में कहे गए हैं अत: इस स्थिति में बारहवें दिन के पूर्व नामकरण संस्कार को सम्पन्न नहीं कर सकते हैं।
वैदिक परम्परा के अनुसार पिता द्वारा ही नामकरण किया जाए, इस बाध्यता से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समय में स्त्रियाँ अपेक्षाकृत अनपढ़ हुआ करती थीं, जिन्हें शब्दों का समुचित ज्ञान नहीं होता था, इसलिए नामकरण का अधिकार पिता या ब्राह्मण पुरुष वर्ग को ही दिया गया है।
नामकरण के दिन जिनप्रतिमा का दर्शन करना, बहुमूल्य सामग्री चढ़ाना, गुरु महाराज की नवांगी पूजा करना, उनका आशीर्वाद प्राप्त करना इत्यादि विधिविधानों को सम्पन्न करने का प्रयोजन है कि वह बालक प्रारम्भ से ही देव-गुरुधर्म की आराधना करने वाला हो, उसका मनोमस्तिष्क सत्संगमय वातावरण से सदा के लिए आप्लावित बना रहे, वह आर्य-संस्कृति का रक्षक बने, समाज का दीप स्तम्भ बने इत्यादि कईं उद्देश्य रहे हुए हैं। उस दिन में संप्राप्त हुआ आशीर्वाद परिवार एवं बालक के लिए वरदान बनते हैं, क्योंकि उस दिन पारिवारिक वर्ग में विशेष उमंग और उल्लास का वातावरण उपस्थित होता है, उस स्थिति में गुरु द्वारा दिए गए आशीर्वाद को सभी जन हर्षोल्लास एवं अन्तःचेतना पूर्वक स्वीकार करते हैं। ये सभी प्रक्रियाएँ शिशु के भावी निर्माण के लिए साक्षात चिंतामणि के समान होती हैं। इस प्रकार यह दृढ़ता से कहा जा सकता है कि यह संस्कार अनेकशः उद्देश्यों से ओत-प्रोत है। इस सत्यता को नकारा नहीं जा सकता है कि इस दुनियाँ में अनेकों मनुष्य हैं, अनेकों पदार्थ हैं, अनेकों क्रियाकलाप हैं उनको नामकरण के बिना पहचानना असंभव है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पहचान बनाए रखने के लिए इस संस्कार को सप्रयोजन स्वीकार करना होगा-यही इस संस्कार की उपादेयता है। सन्दर्भ-सूची 1. धर्मशास्त्र का इतिहास, पृ. 186 2. हिन्दूसंस्कार, पृ. 105 3. मनुस्मृति, 2/31 4. आश्वलायनगृह्यसूत्र, 7/1/15 5. षोडश संस्कार विवेचन, श्रीरामशर्मा, पृ. 5-10