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________________ शुचिकर्म संस्कार विधि का ऐतिहासिक स्वरूप ...117 शुचिकर्म की चर्चा की गई है। आदिपुराण में वह चर्चा इस प्रकार उपलब्ध होती है- ‘उसके जरायुपटल को नाभि की नाल के साथ-साथ किसी पवित्र जमीन को खोदकर मन्त्र पढ़ते हुए गाड़ देना चाहिए। नाभि की नाल को गाढ़ने का मन्त्र यह है- “सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमातः सर्वमात: वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा।'' इस मन्त्र द्वारा भूमि भाग को मन्त्रित कर भूमि में जल और अक्षत डालकर पाँच प्रकार के रत्नों के नीचे गर्भ का मल रख देना चाहिए और फिर “त्वत्पुत्रा इव मत्पुत्राः चिरंजीविनो भूयासुः” (हे पृथ्वी! तेरे पुत्र कुल पर्वतों के समान मेरे पुत्र भी चिरंजीवी हों)- यह कहकर धान्य उत्पन्न होने योग्य खेत में भूमि पर वह मल डाल देना चाहिए। तदनन्तर क्षीर-वृक्ष की डालियों से पृथ्वी को सुशोभित कर उस पर उस पुत्र की माता को बिठाकर मन्त्रित किए हुए सुहाते गरम जल से स्नान कराना चाहिए। माता को स्नान कराने का मन्त्र यह है __ “सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, आसन्नभव्ये आसन्नभव्ये, विश्वेश्वरि विश्वेश्वरि ऊर्जितपुण्ये ऊर्जितपुण्ये जिनमात: जिनमात: स्वाहा।" इस मन्त्र का भावार्थ यह है कि स्नान करते समय शिशु का पिता यह चिन्तन करे - जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव की माता पुत्र के कल्याणों को देखती है, उसी प्रकार यह मेरी पत्नी भी मेरे पुत्र के कल्याण को देखें।13 आदिपुराण में शुचिकर्म संस्कार की यही विधि उपदर्शित है। वैदिक- यद्यपि वैदिक परम्परा शुचिकर्म संस्कार को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार नहीं करती है, तथापि वैदिक ग्रन्थों में शुचिकर्म से सम्बन्धित विधि का स्वरूप इस प्रकार उपलब्ध होता है- वैदिक मान्यतानुसार प्राचीनकाल में शिशु के जीवित उत्पन्न होने पर और प्रसव क्रिया आसानी से होने पर बर्तनों को गरम करने एवं माता और शिशु को धूम से पवित्र करने के लिए कमरे में अग्नि प्रदीप्त की जाती थी।14 कुछ दिनों तक यह अग्नि प्रदीप्त रखी जाती थी। विविध प्रकार के भूतप्रेतों को दूर करने के लिए उपयुक्त मन्त्रों के साथ उसमें धान्य के कण तथा सरसों के बीजों की आहुति दी जाती थी। सूतिकाग्नि अशुद्ध मानी जाती थी और दसवें दिन माता और शिशु की शुद्धि के पश्चात् गृह्य अग्नि का व्यवहार आरम्भ हो जाता था, यह शान्त कर दी जाती थी।15 इस प्रकार वैदिक धर्म में शुचिकर्म संस्कार की यह विधि प्राप्त होती है।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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