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2...शोध प्रबन्ध सार __ आर्य संस्कृति मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित है- 1. प्रवृत्ति मूलक वैदिक परम्परा एवं 2. निवृत्ति मूलक श्रमण परम्परा। ___ 1. प्रवृत्तिमूलक परम्परा- प्रवृत्तिमार्गी परम्परा में मुख्य रूप से वैदिक धर्म का समावेश होता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है कि यहाँ प्रवृत्ति अर्थात क्रियाकांड को मुख्यता दी जाती है। प्रवर्तक धर्म भोग प्रधान धर्म है। यहाँ पर धर्म साधना का मुख्य लक्ष्य सुख-सुविधाओं की प्राप्ति ही रहा है। इस परम्परा के प्रवर्तकों ने लौकिक जीवन के लिए धन-धान्य, पत्र-सम्पत्ति आदि की कामना की है तो लोकोत्तर जीवन में स्वर्ग प्राप्ति की। जब उन प्रवर्तकों को यह अनुभूति हुई कि इन सुख-सुविधाओं की प्राप्ति मात्र पुरुषार्थ के आधार पर नहीं हो सकती, इसके लिए किसी अदृश्य दैविक शक्ति की कृपा एवं सहयोग भी आवश्यक है। तब से ही इस परम्परा में देवी-देवताओं को प्रसन्न करने तथा यज्ञ, हवन, बलि, स्तुति आदि द्वारा उन्हें संतुष्ट करने की परम्परा प्रारंभ हुई। इसी आधार पर प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ- 1. भक्तिमार्ग और 2. कर्ममार्ग।
यह संस्कृति मूलत: भौतिकता प्रधान रही है। अतएव यहाँ यज्ञ, हवन आदि कर्मकाण्डों की एवं गृहस्थ जीवन की मुख्यता देखी जाती है। परंतु गृहस्थ जीवन एवं सामाजिक व्यस्तताओं के बीच ज्ञान और वैराग्यपूर्ण जीवन यापन करना दुष्कर होता है, इसलिए यहाँ भी संन्यास मार्ग का विकास हुआ। संन्यासियों का मार्ग भक्ति मार्ग कहलाया और गृहस्थ का कर्तव्य प्रधान मार्ग कर्ममार्ग कहलाया। इस परम्परा में भी आत्मा, मोक्ष, पुनर्जन्म आदि की अवधारणा है तथा उस हेतु संन्यास मार्ग को आवश्यक माना है। वस्तुत: यहाँ पर गृहस्थ जीवन को मुख्यता देते हुए जीवन के शेष भाग में संन्यास ग्रहण का विधान बताया गया है। इसी कर्म मूलक व्यवस्था के कारण यह परम्परा प्रवृत्तिमार्गी परम्परा कहलाई।
2. निवृत्तिमूलक परम्परा- निवृत्तिमार्गी परम्परा, श्रमण परम्परा के नाम से विख्यात है। जैन एवं बौद्ध संप्रदाय इसी परम्परा के मुख्य प्रतिनिधि हैं। यह धर्म संघ मुख्य रूप से चार वर्गों में विभाजित है- 1. भिक्षु 2. भिक्षुणी 3. श्रावक एवं 4. श्राविका।
साधु-साध्वी का संघ श्रावक-श्राविकाओं की अपेक्षा अधिक सुव्यवस्थित