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शोध प्रबन्ध सार ...xlili
वर्तमान में विधि-विधान का मूल स्वरूप विस्मृत होता जा रहा है। इसे बाह्य क्रिया, अनुष्ठान-आडंबर में ही सीमित समझा जाता है। इसी भ्रमित मानसिकता का निवारण करने एवं विधियों के यथोचित स्वरूप को समझाने का यह एक लघु प्रयास है।
___ 'जैन विधि-विधानों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन' एक सामान्य विषय प्रतीत होता है परंतु इसके अर्थ गांभीर्य पर यदि विचार करें तो इसमें जीवन की सफलता एवं समरसता का मधुर रस समाया हुआ है।
यदि हम 'जैन' शब्द की विवक्षा करें तो जैन कुल में जन्म लेने वाला जैन है यह आम मान्यता है परंतु वस्तुत: जिनवाणी के आधार पर चिंतन करें तो हर वह व्यक्ति जो जिनेश्वर परमात्मा की वाणी को जानता और मानता है एवं तदनुसार ही अपना आचरण करता है वह जैन है। प्रभु महावीर ने कहा है व्यक्ति जन्म से नहीं अपितु अपने कर्म से जैन बनता है। श्रावकाचार-श्रमणाचार आदि का पालन करने वाला ही सच्चा जैन है।
विधि-विधान हमारे दैनिक प्रयोग का शब्द है। सामान्यतया पूजन, महापूजन, प्रतिष्ठा आदि अनुष्ठानों में सम्पन्न की जाने वाली क्रियाओं को विधि-विधान समझा जाता है। यदि थोड़ा गहराई से अन्वेषण करें तो विधि-विधान, यह शास्त्रानुसार जीवन जीने की कला है। यह शास्त्रीय सिद्धान्तों का प्रायोगिक स्वरूप है। जब Laboratory में कोई भी प्रयोग करना हो तो सर्वप्रथम उसके Procedure अर्थात क्रिया करने की विधि एवं उसके नियमोपनियम की जानकारी होना आवश्यक है। उसी विधि या Procedure के आधार पर वह क्रिया प्रायोगिक रूप में सम्पन्न की जाती है अतः क्रिया करने का प्रायोगिक या Practical तरीका विधि है तथा शास्त्रों में निर्दिष्ट की गई वह विधि, विधान कहलाता है। विधि, क्रिया का आचरित या Practical रूप है और विधान, निर्दिष्ट विधि का Theoritical part है। इस स्पष्टीकरण के आधार पर हम शास्त्रोक्त रूप से जो भी आचरण करते हैं वह सभी विधि-विधान हैं। इसी अर्थानुसार इस शोध कार्य के अन्तर्गत श्रावकाचार, श्रमणाचार, तप, प्रतिक्रमण, पूजा आदि दैनिक क्रियाएँ, प्रतिष्ठा आदि आत्मशोधक अनुष्ठान एवं मुद्राएँ आदि मुख्य विषयों का समावेश करते हुए उनका सम्यक स्वरूप प्रस्तुत किया है।