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मंगल नाद
जैन दर्शन अपने आप में एक संपूर्ण दर्शन है। चाहे धर्म हो या कर्म, अध्यात्म हो या विज्ञान, व्यवहार हो या निश्चय मानव सभ्यता के सभी पक्षों का इसमें सुन्दर, सहज एवं सुगम वर्णन है। इन्हीं विविध आयामों में से एक बृहद एवं महत्त्वपूर्ण आयाम है विधिविधान ।
यद्यपि आज विधि विधान का अभिप्राय मात्र प्रतिष्ठा, अंजन शलाका, महापूजन आदि अनुष्ठानों तक सीमित समझा जाता है परन्तु वस्तुतः इसका स्वरूप अति विस्तृत है । सम्पूर्ण Theoritical और Practical क्रियाएँ विधि विधान के अंतर्गत ही समाविष्ट हो जाती हैं। विधि विधान के माध्यम से मानव के आचार-विचार आदि को एक सम्यक दिशा प्राप्त होती है। जीवन शैली सुव्यवस्थित होती है।
यह Life Management का सफल सूत्र है। जहाँ श्रावकाचार और श्रमणाचार सम्बन्धी संहिताएँ उन्हें अपने आचार में सुदृढ़ एवं परिपक्व करती है वहीं प्रतिक्रमण, तप, सामायिक आदि साधनाएँ उन्हें आध्यात्मिक उच्चता के साथ शारीरिक स्वस्थता प्रदान करती है। पूजाप्रतिष्ठा आदि बृहद् अनुष्ठान सामाजिक संगठन को परिपुष्ट कर आपसी सौहार्द को वर्धित करते हैं।
विधि-विधान के इसी सुविस्तृत रूप को सहज गम्य बनाने के लिए जैनाचार सम्बन्धी विधि-विधानों को मुख्य रूप से चार भागों में वर्गीकृत करते हुए उसके विविध प्रकारों एवं मुख्य पक्षों का विदुषी साध्वी रत्ना सौम्यगुणा श्रीजी ने सुंदर रूप में निरूपण किया है। इस विस्तृत शोध कार्य से जैन समाज को अनुपम लाभ मिलेगा। प्रस्तुत शोध सारांशिका के माध्यम से पाठक वर्ग विधियों से संक्षिप्त रूप में परिचित हो पाएगा तथा आत्म रुचि के अनुसार विवेच्य विषयों का विस्तृत अध्ययन कर सकेगा।
प्रिय आत्मज्ञ साध्वी सौम्याजी ने विधि ग्रन्थों की क्रम बद्ध एवं विषय बद्ध रचना करके मात्र श्रुत संवर्धन ही नहीं किया है अपितु समाज को एक विशिष्ट उपहार भी दिया है। सामुदायिक एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए अध्ययन एवं लेखन के प्रति उनकी कटिबद्धता और समरसता अनुमोदनीय एवं आश्चर्यपरक है।
शोध ग्रन्थों की यह श्रृंखला अनवरत रूप से चलती रहे। इसी के साथ साध्वीजी अपने ज्ञान बल एवं बुद्धि बल के द्वारा जिनशासन को इसी तरह संवर्धित करती रहे, यही आत्मीय मंगल कामना।
आर्या शशिप्रभाश्री