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________________ शोध प्रबन्ध सार ...131 है। परंतु एक मंदिर का निर्माण सदियों का इतिहास लिखता है। आने वाले सैकड़ों वर्षों तक उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता अत: प्रतिष्ठाकर्ताओं का उत्तम होना अत्यंत आवश्यक है। प्रतिमा आदि को प्रतिष्ठापित क्यों करना चाहिए? प्राय: लोगों के मन में यह प्रश्न कभी न कभी अवश्य उठता है कि प्रतिमा की पूज्यता तो पूजक की आन्तरिक श्रद्धा एवं समर्पण पर आधारित है तो फिर उसे पूज्यता प्रदान करने हेतु परिकर आदि को स्थिर कर प्रतिष्ठा कर्म करना आवश्यक क्यों? विधिनिष्ठ आचार्य वर्धमानसूरि इसका सहेतुक समाधान करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार मुनिगण को आचार्य आदि योग्य पदों पर स्थापित करने से, ब्राह्मण वेद संस्कार से, राजपूत आदि राज्याभिषेक से, वैश्य श्रेष्ठि पद से, शुद्र राज्य सम्मान से प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हैं वैसे ही प्रतिष्ठा आदि विधानों द्वारा पाषाण निर्मित प्रतिमा पूज्यता को प्राप्त करती है। तिलक, पदाभिषेक आदि द्वारा पदधारी की कोई दैहिक पुष्टि नहीं होती बल्कि उक्त क्रियाओं द्वारा उनमें मंत्र आदि की दिव्य शक्ति का संचरण एवं जनसाधारण में तद्योग्य प्रसिद्धि होती है। इसी प्रकार पाषाण से निर्मित जिनेश्वर परमात्मा, शिव, विष्णु, क्षेत्रपाल आदि की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठा विधान द्वारा जनमानस के हृदय में विशेष पूज्यता एवं स्थान को प्राप्त करती हैं तथा उनकी प्रभावकता में वृद्धि होती है। ज्ञातव्य है कि प्रतिष्ठा विधि द्वारा प्रतिमा में मोक्ष स्थित परमात्मा का अवतरण नहीं होता अपितु प्रतिष्ठाचार्य की विशिष्ट साधना शक्ति एवं सद्भाव जिन प्रतिमा में संक्रमित होते हैं। जिससे उसमें भगवद् स्वरूप की साक्षात अनुभूति होती है। सम्यग्दृष्टि अधिष्ठायक देव उन प्रतिमाओं की प्रभावकता में वृद्धि करते हैं। भारतीय सभ्यता में मन्दिरों का स्थान- अति प्राचीन काल से ही मानव साकार धर्म की उपासना कर रहा है। जिस प्रकार धर्म, धर्मनायक, धर्म गुरु एवं धर्मसंस्थापक महापुरुषों की प्रतिमा पूज्य है उसी तरह उनकी प्रतिमा के रहने का स्थान भी पूज्य है। मन्दिर ही वह स्थान है जहाँ व्यक्ति का चंचल मन विश्रान्ति को प्राप्त करता है।
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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