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120...शोध प्रबन्ध सार जा सकता है। इसी आत्मोकर्ष की भावना को लेकर विविध साकार एवं निराकार आलंबनों का प्रादुर्भाव मानव समाज में हुआ। ___ जैन धर्म में आत्मोत्थान हेतु देव-गुरु-धर्म रूप तत्त्वत्रयी का आलंबन स्वीकार किया जाता है। सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा को देव रूप एवं उनके आज्ञा पालक मुनि भगवंतों को गुरु रूप में स्वीकार किया गया है। इन आलंबनों को अपना जीवन आदर्श मानते हुए प्राच्य काल से उनके पूजन आदि का विधान देखा जाता है। जिनपूजा आदि के माध्यम से पूजनीय व्यक्ति का समुचित आदरसम्मान होता है। __ जिनपूजा क्यों करनी चाहिए? परमात्म भक्ति मानव जीवन की महानतम पूँजी है। आत्मा को साधना से समृद्ध करने का अनुपम माध्यम है। मुक्ति फल की प्राप्ति हेतु कल्पवृक्ष के तुल्य है। धर्म रूपी महल में प्रवेश करने के चार मुख्य द्वारों में से प्रथम द्वार जिनपूजा को बताया गया है। पूर्वाचार्यों ने 'पूज्यमाने जिनेश्वरे' पद के आधार पर जिनपूजा का फल बताते हुए कहा है कि परमात्मा की पूजा से समस्त उपसर्गों का क्षय हो जाता है, विघ्न रूपी वलय का छेदन हो जाता है तथा मन विषाद रहित होकर अद्भुत प्रसन्नता को प्राप्त करता है।
आज के युग में जब जीवन व्यस्तता की ओर निरंतर आमुख होता जा रहा है। शान्ति के कुछ पल मिलना भी मानव के लिए दुष्कर है। इस अवस्था में जिन दर्शन-पूजन के माध्यम से सांसारिक झंझटों से छुटकारा मिल जाता है। जिनप्रतिमा के दर्शन-पूजन से जो प्रभाव हृदय पटल पर उत्कीर्ण होता है उसे सच्चे रूप में महसूस करने वाला निजानन्द की अनुभूति करता है। मन-मस्तिष्क की एकाग्रता के कारण हृदय पवित्र हो जाता है एवं कर्मों का आवरण ढीला पड़ जाता है। कषाय आदि भी न्यून हो जाते हैं।
जिन पूजा के माध्यम से जीव को निज स्वरूप का भान होता है। जैन आगमों में कहा गया है कि 'जिन प्रतिमा जिन सारखी जाणो' अत: जिनप्रतिमा के पूजन से साक्षात जिनेश्वर की भक्ति का लाभ मिलता है और वह भक्ति मुक्ति प्राप्ति में हेतुभूत बनती है।
इसके माध्यम से हमारी सांस्कृतिक धरोहर चिरस्थायी रहती है। भारतीय मन्दिर एवं प्रतिमाएँ शिल्प का ऐतिहासिक प्रमाण हैं। इसके माध्यम से आज सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति सुविख्यात है।