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________________ 112... शोध प्रबन्ध सार के स्थान, प्रत्याख्यान ग्रहण विधि, प्रत्याख्यान सम्बन्धी आगार, उनका स्वरूप एवं उनके कारण, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का सम्बन्ध, प्रत्याख्यान के प्रयोजन आदि विविध विषयों पर मूल्यपरक विवेचन किया गया है। प्रस्तुत शोध 'खण्ड का मुख्य ध्येय यह है कि साधक वर्ग आवश्यक क्रिया के वास्तविक स्वरूप से परिचित हो पाएं, षडावश्यक की महत्ता एवं नियामकता को समझते हुए उसे दैनिक आचरण के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार करें एवं पारस्परिक क्रियाओं के गूढार्थमय स्वरूप को समझ पाएं। खण्ड - 12 प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना प्रतिक्रमण जैन विधि-विधानों का नवनीत है। यह विधान आत्मा को अपने लक्ष्य तक पहुँचाता है। श्रमण एवं श्रावक जीवन की यह एक आवश्यक नित्य साधना है। जैन ग्रन्थों में प्ररूपित समस्त विधि-विधानों का सार आत्म विशुद्धि एवं मोक्ष तत्त्व की प्राप्ति है। प्रतिक्रमण दोष शुद्धि एवं आत्म संशुद्धि की Direct क्रिया है । प्रतिक्रमण एक महायोग है। योग अर्थात आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ने वाली साधना । मोक्ष प्राप्ति रूप योग में बाह्य और आभ्यंतर तप का समावेश होता है। इसमें भी आभ्यंतर तप का उत्कृष्ट स्थान है तथा आभ्यंतर तप में भी प्रायश्चित्त का प्रथम स्थान है । प्रतिक्रमण पापों के प्रायश्चित्त की क्रिया है । योगों में इसका उच्च स्थान होने से प्रतिक्रमण को महायोग कहा है। प्रतिक्रमण के अन्तर्गत विनय, ध्यान, कायोत्सर्ग और स्वाध्याय का समावेश हो जाता है इसलिए भी यह एक महायोग है। प्रतिक्रमण का तात्त्विक स्वरूप- कई बार प्रश्न उठता है कि जैन साधना विधानों में प्रतिक्रमण को इतनी महत्ता क्यों दी गई ? साधु-साध्वी को प्रत्येक क्रिया करने के बाद ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करने का निर्देश दिया है। श्रमण एवं श्रावक वर्ग को उभयकाल षडावश्यक करने का निर्देश है। उसी का एक अंग प्रतिक्रमण है। परंतु वर्तमान में षडावश्यक ही प्रतिक्रमण रूप में प्रचलित है। इसकी प्रमुखता के बारे में वर्णन करते हुए जैनाचार्यों ने कहा है कि संसारी आत्मा में अनेकानेक मलिन वृत्तियाँ है । उन भावों को समाप्त करने के लिए अनेक प्रकार के प्रतिकार चाहिए। एक प्रतिकार
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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