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शोध प्रबन्ध सार ...109
ही है। आवश्यक इन्हें नियंत्रित एवं उपशमित करने का अनुभूत मार्ग है।
आज विश्व विकास की दौड़ में तीव्र गति से दौड़ रहा है। विकास में सात्विकता एवं मानवता लुप्त हो चुकी है। व्यक्ति येन-केन प्रकारेण आगे बढ़ना चाहता है। प्रतिस्पर्धा में प्रतिद्वंदिता बढ़ती जा रही है। षडावश्यक की साधना लघुता, गुणग्राहकता एवं विनय की कला सिखाती है। . आपसी गैर समझ, मतभेद एवं वैर को मिटाने में भी षडावश्यक साधना सहयोगी बन सकती है तथा विश्व मैत्री के संदेश को प्रसरित करती है।
आध्यात्मिक क्षेत्र में तो इसकी महत्ता सर्व विदित है। इसी महत्ता एवं उपयोगिता के अन्य पक्ष उजागर करने एवं षडावश्यक के तात्त्विक स्वरूप से परिचित करवाने के लिए यह शोध कार्य सहयोगी बन सके तद्हेतु इसे सात अध्यायों में विभाजित किया है।
प्रथम अध्याय में आवश्यक के स्वरूप एवं उसके भेद-प्रभेदों की चर्चा करते हुए तत्सम्बन्धी अन्य अनेक विषयों को उद्घाटित किया है। जो अवश्य करने योग्य हो उसे आवश्यक कहते हैं। इसे आवश्यक, आपाश्रय, आवश्य, आवासक, ध्रुव निग्रह, विशोधि, अवश्यकरणीय आदि विविध नामों से जाना जाता है। यहाँ आवश्यक शब्द का अभिप्राय लौकिक आवश्यक क्रियाओं से नहीं अपितु लोकोत्तर क्रिया से है। इसी आवश्यक क्रिया के स्वरूप एवं महत्त्व को समझाने हेतु इस अध्याय में आवश्यक शब्द को परिभाषित करते हुए उसके प्रकार, क्रम वैशिष्ट्य, वर्तमान प्रासंगिकता आदि का वर्णन किया है। इसी के साथ इसकी ऐतिहासिकता को प्रमाणित करने हेतु आवश्यक सूत्र के कर्ता, रचनाकाल एवं व्याख्या साहित्य का भी विवरण प्रस्तुत किया है।
इस खण्ड के द्वितीय अध्याय में सामायिक आवश्यक का सुविस्तृत प्रतिपादन करते हुए कई मुख्य घटकों को उजागर किया गया है।
सामायिक जैन साधना पद्धति की महत्त्वपूर्ण क्रिया है। जैन साधना का आरम्भ इसी के द्वारा होता है। षडावश्यक का प्रारंभ भी सामायिक से होता है। सामायिक मन, वचन, काया को संयमित करने का व्रत है। आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने का प्रथम सोपान है। आत्मा के स्वाभाविक गुणों का संपोषण एवं वैभाविक दोषों का निर्गमन करने का प्रमुख साधन है।
सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण करते हए द्वितीय अध्याय में