SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शोध प्रबन्ध सार ... 101 अत्यंत सूक्ष्म विषय है। इसमें ग्रंथ निर्दिष्ट निर्देशों के साथ अनुभव ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है। इसीलिए गीतार्थ आचार्य को ही आलोचना देने योग्य माना है। आलोचनाग्राही को सम्पूर्ण निःशल्य होने का निर्देश दिया गया है। एक पापवृत्ति को छिपाने की भावना समस्त आलोचित पापों को भी निष्फल कर देती है। यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चिंतन करें तो आज पाप वृत्तियाँ एवं दूषित मनोवृत्तियाँ बढ़ती जा रही है। लोगों में पापभीरूता एवं मर्यादाओं के प्रति कटिबद्धता भी नहींवत रह गई है। समाज में नियम मर्यादाओं का भंग बढ़ता जा रहा है। छोटे स्तर पर इन अपराधों को न रोकने के कारण आज पारिवारिक हिंसा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी बढ़ते जा रहे हैं । यद्यपि समाज की अपनी दण्ड व्यवस्था है। परंतु उसमें इतनी अधिक नियम मर्यादाएँ हैं कि असल अपराधी तक पहुँचते-पहुँचते अपराधी की अपराध वृत्ति बहुत बढ़ जाती है। दण्ड व्यवस्था तो है किन्तु अपराध वृत्ति के कारणों को जानकर उनके निर्मूलन का कोई उपाय नहीं है। इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखकर जैन शास्त्रों में व्याख्यायित प्रायश्चित्त विधि के विविध पहलुओं को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। जिससे जन सामान्य में आलोचना के प्रति रही भय वृत्ति समाप्त हो जाए । प्रायश्चित्त एवं आलोचना विधि को स्पष्ट रूप से समझने हेतु इस खण्ड को सात अध्यायों में विभाजित किया है। प्रथम अध्याय में प्रायश्चित्त के विभिन्न अर्थों का निरूपण करते हुए पूर्वाचार्यों के अनुसार प्रायश्चित्त का स्वरूप, परिभाषा एवं उसके समानार्थक शब्दों का उल्लेख किया गया है। प्रायश्चित्त जैन साधना की प्राणभूत क्रिया है । समस्त क्रिया - अनुष्ठानों का सार है। स्वदोष दर्शन की अद्भुत प्रक्रिया है । ग्रन्थकारों ने पापों को शुद्ध कर की क्रिया को प्रायश्चित्त कहा है । यह पाप समूह का छेदन करते हुए जीव को अतिचार मल से रहित करती है। जैनाचार्यों के अनुसार प्रायश्चित्त वह तप अनुष्ठान है, जिसके आचरण से इहभव में उपार्जित एवं परभव में संचित समस्त प्रकार के दुष्पाप आत्मा से पृथक हो जाते हैं। प्रायश्चित्त यह मानव से महामानव बनने का राजमार्ग है अत: प्रस्तुत अध्याय में सर्वप्रथम प्रायश्चित्त के स्वरूप एवं प्रकारों से अवगत करवाया है।
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy