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________________ शोध प्रबन्ध सार ...99 • प्रायश्चित्त (दंड) के रूप में प्राप्त तप-जप आदि से धर्म साधना निश्चित हो जाती है। इनके द्वारा पूर्व संचित पाप की निर्जरा एवं नवीन पुण्य का बंधन होता है। • आलोचना के द्वारा जीवन परिवर्तन होता है एवं चित्त धर्ममय प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है। . . शास्त्रानुसार प्रायश्चित्त ग्रहण करने से उत्कृष्ट शुभ भावों के परिणामस्वरूप कई बार केवलज्ञान तक की प्राप्ति हो जाती है। आगमों में कई ऐसे उदाहरणों का वर्णन है जिन्होंने आलोचना करते-करते ही सर्वथा कर्मों का क्षय कर लिया। प्रायश्चित्त स्वीकार क्यों किया जाए? कई लोगों के मन में यह प्रश्न उभरता है कि व्यक्ति के द्वारा बड़ा अपराध हो जाए तो उसकी सजा देना आवश्यक है किन्तु सामान्य भूल या अनुचित व्यवहार के लिए दण्ड व्यवहार पद्धति की आवश्यकता क्यों? छोटी-छोटी गलतियाँ तो इंसान से होती रहती है परंतु उन्हें बार-बार गुरु के समक्ष प्रकट करना तो हंसी-मजाक होगा। परंतु ऐसा नहीं है घाव छोटा हो या बड़ा उसे दूर करना आवश्यक होता है वरना वही छोटा घाव बड़ा बन जाता है। इसी प्रकार छोटी-छोटी गलतियाँ बार-बार उपेक्षित करने पर महा दुष्फल का कारण बनती है। 84 लाख जीव योनि में मनुष्य को सर्वोत्तम माना गया है। उच्च पदासीन व्यक्तियों का छोटा सा गुनाह भी व्यावहारिक जीवन में बड़ी सजा का कारण बन जाता है। जैसे कि न्यायाधीश द्वारा थोड़ी सी रिश्वत लेने पर उसे पदच्युत कर दिया जाता है। इसी प्रकार प्रज्ञा सम्पन्न मानव यदि गुनाह करें तो वह अधिक पतन का कारण बनता है। . कई सूक्ष्म परिलक्षित होने वाली क्रियाएँ प्रबल कषाय भावों के कारण स्थूल पाप रूप में परिवर्तित हो जाती है। जैसे कि अंधेरे में रस्सी को साँप समझकर मारने की क्रिया में द्रव्य हिंसा नहीं है परंतु भावों से साँप को मारने जितने भावों का ही बंधन होता है। आंतरिक मलीनता छोटे पापों को बड़ा कर देती है वहीं आंतरिक निर्मलता स्थूल पापकारी क्रियाओं में भी अल्प बंधन करवाती है। लोक व्यवहार में भी देखते हैं कि ऊपर से मलबा फेंकते हुए मजदूर के द्वारा पत्थर लगने से कोई व्यक्ति मर भी जाए तो मारने के भाव न होने के
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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