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शोध प्रबन्ध सार ...85
भाग-3
जैन विधि-विधानों के तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन को मुख्य रूप से चार भागों में वर्गीकृत किया है। उनमें से पूर्व दो भागों में हमने श्रावकाचार एवं श्रमणाचार के विविध पहलुओं का 9 विभिन्न खण्डों के माध्यम से विवेचित किया। तृतीय भाग को प्रमुखतया छः खण्डों में विभाजित किया जा रहा है। इस भाग में जैन सिद्धान्त महोदधि के उन रत्नों का स्वरूप प्रकट किया है जिनका सम्बन्ध श्रावक वर्ग एवं श्रमण वर्ग दोनों से रहा हुआ है।
जैन विधि-विधानों में कई ऐसी क्रियाएँ हैं जो समान रूप से दोनों वर्गों में समादरित एवं समाचरित है। कुछ का प्राबल्य श्रमण जीवन में अधिक है तो कुछ का श्रावक जीवन में, परंतु आवश्यकता दोनों ही वर्गों में रही हई है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर तीसरे भाग को छः खण्डों में उपदर्शित करेंगे। इनके माध्यम से आज क्षीणता की कगार पर आ चुके विधि-विधानों को पुनर्जीवित कर चिरस्थायी बनाया जा सकता है। खण्ड-9 तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक। खण्ड-10 प्रायश्चित विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण व्यवहारिक एवं
आध्यात्मिक मूल्य के संदर्भ में। खण्ड-11 षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक संदर्भ में। खण्ड-12 प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना। खण्ड-13 पूजाविधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता मनोविज्ञान एवं अध्यात्म के
संदर्भ में। खण्ड-14 प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन आधुनिक संदर्भ में। . सर्वप्रथम नौवें खण्ड में जैन धर्म की प्राणभूत क्रिया तप का विवेचन किया है। तप से निर्मल हुई आत्मा अपने पाप कर्मों को गुरु के समक्ष स्वीकार कर उनका प्रायश्चित कर सकती है। अत: दसवें खण्ड में आत्म आराधना मूलक प्रायाश्चित विधि का वर्णन किया है। तदनन्तर ग्यारहवें अध्याय में श्रमण एवं श्रावक जीवन की महत्त्वपूर्ण दैनिक क्रिया षडावश्यक का विवेचन किया है। षडावश्यक की साधना भगवान महावीर शासन के अनुयायियों के लिए अनिवार्य बताई गई है। बारहवें खण्ड में षडावश्यक के अंग रूप प्रतिक्रमण का विवेचन किया है। प्रतिक्रमण यद्यपि षडावश्यक का ही अंग है परंतु अन्य पक्षों