SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 78...शोध प्रबन्ध सार खण्ड-8 आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण जैन आगम भारतीय साहित्य की अनमोल धरोहर है। जैन धर्म एवं दर्शन के प्रचार-प्रसार हेतु आगम साहित्य में निहित सिद्धान्तों का विशिष्ट योगदान रहा है। जिस प्रकार वैदिक परम्परा में वेद, बौद्धों में त्रिपिटक, ईसाईयों में बाईबल, सिक्खों में गुरु ग्रन्थ साहिब एवं मुसलमानों में कुरान का महत्त्व है। इन्हें पवित्र और पूज्य धर्मग्रन्थ माना जाता है उसी तरह जैन परम्परा में आगम शास्त्र पूज्य धर्मग्रन्थ हैं। निम्रन्थ धर्मसंघ में तीर्थंकरों के उपदेश को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। आगमों में उन्हीं उपदेशों का संकलन है। यद्यपि प्राय: सभी तीर्थंकरों के उपदेशों में एकरूपता रहती है एवं उनका सार तत्त्व भी एक ही है परन्तु देश, काल के अनुसार नियम मर्यादाओं में कुछ परिवर्तन होते हैं। इसी कारण वर्तमान प्रचलित आगमों में भगवान महावीर की वाणी का संकलन है। इन्हीं के आधार पर वर्तमान जैन संघ की व्यवस्था का संचालन होता है। जैनागमों में मुख्यतया दो प्रकार का धर्म बतलाया गया है- श्रुतधर्म और चारित्रधर्म। श्रुतधर्म के पालन द्वारा शास्त्रज्ञान एवं वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का निश्चय होता है। चारित्र धर्म के सम्यक अनुपालन से साध्य रूप परमात्म तत्व की उपलब्धि होती है। योगोद्वहन इन दोनों धर्मों के क्रियान्वयन का सम्मिश्रित अनुष्ठान है। इसके माध्यम से श्रुत एवं चारित्र की युगपद आराधना होती है। . योगोद्वहन क्या और क्यों? मन, वचन और काया की समस्त चेष्टाओं को संयमित कर चित्त की एकाग्रता पूर्वक आगम शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना योगोद्वहन कहलाता है। जैन प्रणालिका के अनुसार आयम्बिल आदि तप एवं कायोत्सर्ग-खमासमण-वन्दन आदि क्रियाओं के साथ आचारांग आदि आगम शास्त्रों का अभ्यास करना योगोद्वहन है। इस योग साधना के माध्यम से रत्नत्रय की आराधना हो जाती है। ज्ञानार्जन का यह श्रेष्ठ एवं उत्तम मार्ग है।
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy