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________________ शोध प्रबन्ध सार ... 71 जाती है तथा जनता का राज्य से जनतंत्र कहलाता है। स्वतंत्रता के दृष्टिकोण से जनतंत्र अधिक विकासशील है। स्वतंत्रता का मूल्य सर्वोपरि हैं क्योंकि इसके गर्भ में ही आध्यात्मिक चेतना का उद्भव होता है परंतु इस स्वतंत्रता के साथ अनुशासन भी परम आवश्यक है। अनुशासन यह किसी भी व्यवस्था का मूलभूत तत्त्व होता है। चाहे आध्यात्मिक व्यवस्था हो, सामाजिक व्यवस्था हो या राजनैतिक व्यवस्था, बिना अनुशासन के वह सभी चरमरा जाती है । राज्य संचालन का मूल मंत्र शक्ति है जबकि धर्म जगत के संचालन का मूल मन्त्र है पवित्रता । जहाँ शक्ति है वहाँ संघर्ष होगा और जहाँ पवित्रता है वहाँ हृदय की शुद्धि । हृदय की निर्मलता के साथ जिस व्यवस्था को स्वीकार किया जाता है वह धर्मानुशासन या आत्मानुशासन है तथा जहाँ पर नियम- मर्यादाओं का स्वीकार जोर जबरदस्ती पूर्वक हो वह राज्यानुशासन है। आचार्य महाप्रज्ञ ने अनुशासन के मूलभूत दो प्रयोजन स्वीकार किये हैं। पहला आध्यात्मिक शुद्धि और दूसरा सामुदायिक व्यवस्था। इनमें से एक नैश्चयिक पक्ष है और दूसरा व्यावहारिक । जीवन पर्यन्त के लिए पंच महाव्रतों का स्वीकार करना नैश्चयिक अनुशासन है वही संघीय आत्मोत्कर्ष के लिए आचारमूलक नियमों का प्रतिष्ठापन करना एवं इन्हें प्रायोगिक बनाना व्यावहारिक अनुशासन है। पदव्यवस्था के माध्यम से अनुशासकीय प्रणाली निरन्तर ऊर्ध्वगामी बनती है। विभिन्न पदों के माध्यम से ही नियमबद्ध अनुशासन प्रणाली को आचरण में लाया जाता है। यदि व्यावहारिक दृष्टिकोण से विचार करें तो किसी भी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उसमें संगठनात्मक व्यवस्था का होना अनिवार्य है। साथ ही उसके उन्नयन हेतु आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना भी अत्यंत आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में पद व्यवस्था - भारतीय संस्कृति की अपेक्षा से विचार करें तो मूल रूप से इसकी दो धाराएं रही है। उन्हीं दोनों के आधार पर सम्पूर्ण भारतीय सभ्यता का नियमन हुआ है। वैदिक संस्कृति लौकिक एवं बाह्य
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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