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66... शोध प्रबन्ध सार
से थोड़ा-थोड़ा रसपान करता है जिससे फूलों को पीड़ा नहीं होती और भ्रमर की तृप्ति भी हो जाती है। उसी प्रकार साधु भी गृहस्थों द्वारा अपने एवं कुटुम्बियों के लिए तैयार किए गए आहार में से थोड़ा थोड़ा ग्रहण करता है जिससे गृहस्थों को किसी तरह की तकलीफ नहीं होती और उसके देह की परिपालना भी हो जाती है। साधु की इसी वृत्ति को माधुकरी वृत्ति कहते हैं । यह भिक्षाचर्या का श्रेष्ठ प्रकार है।
यह उल्लेखनीय है कि जैन मुनि उदर पोषक नहीं होता। वह खाने या स्वाद के लिए नहीं खाता। उसके आहार ग्रहण का भी कारण होता है और आहार त्याग का भी।
आहार ग्रहण क्यों? जैन ग्रन्थों में मुनि द्वारा आहार ग्रहण के छ: कारण बताए गए हैं- 1. क्षुधा वेदना की शान्ति के लिए 2. सेवा करने के लिए 3. ईर्या समिति का पालन करने के लिए 4. संयम के अनुष्ठान के लिए 5. प्राणों को धारण करने के लिए और 6. धर्म चिन्तन के लिए |
इसके विपरीत कुछ कारण ऐसे हैं जिनके उपस्थित होने पर मुनि आहार का परित्याग भी करते हैं। जैसे - 1. रोग आने पर 2. उपसर्ग आने पर 3. भूख शान्त होने पर 4. ब्रह्मचर्य रक्षार्थ 5. प्राणीदयार्थ और 6. शरीर व्युत्सर्गार्थ ।
उक्त आगमिक उद्धरणों से ध्वनित होता है कि मुनि का आहार ग्रहण एवं आहार विसर्जन दोनों ही संयम अभिवृद्धि के लिए होता है ।
वर्तमान संदर्भों में भिक्षाचर्या सम्बन्धी समस्याएँ- कई लोग आज की आधुनिक मनोवृत्ति में भिक्षाचर्या जैसी विधियों को अनौचित्यपूर्ण मानते हैं। आज कई संस्थाओं द्वारा तो भिक्षा के विरुद्ध आंदोलन भी चलाए जा रहे हैं क्योंकि आज भीख माँगने के नाम पर हजारों-लाखों बच्चों का अपहरण कर उन्हें अपाहिज बना दिया जाता है। वहीं कुछ लोगों द्वारा इसे एक व्यापार के रूप में भी चलाया जाता है। कई ऐसे लोग हैं जो साधुओं के नाम पर भिक्षा मांग कर समाज के लिए अभिशाप साबित हो रहे हैं। यह तथ्य सत्य है परंतु सभी को एक लाठी से नहीं हांका जा सकता।
भिक्षा नाम से तो क्रिया एक है परंतु मुनि द्वारा भिक्षा याचना में तथा एक भिखारी द्वारा भिक्षा याचना में बहुत अंतर है। मुनि कभी जबरदस्ती या गृहस्थ की अनिच्छा होने पर आहार ग्रहण नहीं करता। इसके विपरीत गृहस्थ स्वयं